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विवेकानन्द का शिक्षा दर्शन राशोबा

स्वामी विवेकानन्द का शिक्षा दर्शन वेदान्त और उपनिषदों पर आधारित है। उनकी नस-नस में भारतीयता तथा अध्यात्मिकता कूट-कूट कर भरी हुई थी। स्वामी जी का अटल विश्वास था कि सभी प्रकार का सामान्य तथा आध्यात्मिक ज्ञान मनुष्य के मन में है। स्वामी जी आधुनिक शिक्षा प्रणाली के कटु आलोचक थे। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि पुस्तकीय शिक्षा अनुपयोगी है। उनके कथानुसार, ‘हम ऐसी शिक्षा चाहते हैं जिससे चरित्र का निर्माण हो, मानसिक शक्ति में वृद्धि हो और व्यक्ति अपने पैरों पर खड़ा हो सके।’ उनके अनुसार शिक्षा को विश्वात्मक-भ्रातृभाव तथा त्याग-भावना विकसित करनी चाहिए। शिक्षा द्वारा मनुष्य में ‘विविधता में एकता’ ढूढने की योग्यता, असीम शक्ति, असीम उत्साह, असीम साहस, असीम सहनशीलता का विकास होना चाहिए।

विवेकानन्द जी के अनुसार पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए जिससे शिक्षार्थी के व्यक्तित्व का प्रत्येक पक्ष विकसित हो सके। उनका विश्वास है कि विज्ञान और भारतीय वेदान्त में समन्वय स्थापित करना ही आधुनिक भारत की वास्तविक आवश्यकता है। वेदान्त और विज्ञान का समन्वय ही मनुष्य को इस बात की प्रेरणा दे सकता है कि वह शान्तिमय-उद्देश्यों तथा मानव-प्रगति के लिए वैज्ञानिक साधनों का प्रयोग करे। स्वामी जी ने कला को जीवन का अनिवार्य अंग माना है। उन्होंने मातृभाषा की आवश्यकता पर भी बल दिया। देश की एकता के लिए मातृभाषा में शिक्षा का होना अत्यंत आवश्यक है।

स्वामी जी ने ऐसी शिक्षण विधियों पर बल दिया है जिसमें ज्ञान प्राप्ति के लिए एकाग्रता हो। एकाग्रता ही ज्ञान की एकमात्र चाबी है। एकाग्रता के अतिरिक्त उन्होंने विचार-विमर्श और चिन्तन की शिक्षण विधियों के महत्व पर भी बल दिया। स्वामी जी स्वतन्त्र शिक्षा देने के प्रबल समर्थक थे क्योंकि स्वतन्त्रता विकास की पहली आवश्यकता है। अतः अध्यापक को अपने विद्यार्थी पर किसी प्रकार का दबाब नहीं डालना चाहिए। अध्यापक का वास्तविक कार्य इस बात को देखना है कि बच्चे के आत्म-विकास में किसी प्रकार की बाधा न पड़े। जिस प्रकार एक माली पौधों के लिए धरती तैयार करता है, उन्हें विनाशकारी हाथों और पशुओं से बचाता है, उन्हें समय-समय पर पानी और खाद देकर पालता है उसी प्रकार अध्यापक बच्चों के विकास के लिए उचित वातावरण का प्रबन्ध करता है।

स्वामी जी के शिक्षा-दर्शन के इन्हीं मूलभूत विचारों से प्रेरित है राशोबा की शिक्षण प्रणाली। विश्वविद्यालय द्वारा निर्धारित पाठ्यक्रम को पूर्ण करना हमारा कत्र्वय है। उसे पूर्ण करने में हमारे पथ को स्वामी जी का शिक्षा-दर्शन ही आलोकित करता है। राशोबा में आने वाले छात्र लगभग 24-25 वर्ष की आयु के होते हैं जो हमारे पास लगभग मात्र 450 दिन ही रहते हैं। इतने कम समय में उनमें आमूल परिवर्तन लाना संभव नहीं होता तथापि परिवर्तित होने के लिए हम उनमें उतकण्ठा भर देते हैं।

।। राशोबा में जो आए,

सकारात्मकता की ओर जाए।।

डा0 महेन्द्र सिंह (प्राचार्य)