मेरे मन के आँगन में कई स्मृतियाँ आसन जमाए बैठी है ं। मैं उनका स्वागत करने को आतुर हूँ, लेकिन सभी स्मृतियाँ तो एक साथ स्वागत-कक्ष में आ नहीं सकतीं। हाँ! कुछ ऐसी होती हैं, जिन्हें रोकना असंभव होता है। ऐसी ही एक स्मृति है डॉ. कुमुद बंसल जी की। एक दिन उनका फोन मिला – ”हम लोग ‘हरियाणा साहित्य अकादमी’ की ओर से स्कूलों के छात्र-छात्राओं के लिए साहित्य की विविध विधाओं की संयुक्त कार्यशाला करना चाहते हैं। इनमें आपकी सक्रिय भागीदारी की आवश्यकता है।“
अपनी प्रकृति के अनुकूल इन कार्यशालाओं के आयोजन पर मैंने उन्हेंबधाई दी और सानंद अपनी स्वीकृति दे दी। दो वर्ष तक चली इन कार्यशालाओं में उनकी प्रबंध-पटुता, व्यवस्था-प्रियता, अतिथियों के स्वागत के लिए तत्परता को देखकर मैं चकित रह गया, लेकिन उनका चिन्तन, मनन, दर्शन, राष्ट्र और राष्ट्रीयता के प्रति ललक तथा समर्पण भावना ने मेरे मन में अनुराग के बीज बो दिए।
उसी बीच उनकी रचना-कृतियों को पढ़ने और उनमें निहित दर्शन कोसमझने का सुअवसर मिला। हरियाणा साहित्य अकादमी की ओर से निकलने वाली पत्रिका तथा युवा साहित्यकारों के लिए तैयार की जाने वाली विभिन्न पुस्तकों के संपादकीय पढ़कर उनके चिन्तन और साहित्यिक संस्कारों से परिचित होने का लाभ मिला। ईश्वर क्या है इस पर अनेक मनीषियों ने विचार किया है। वह हमारे पास है और हम उससे अनभिज्ञ हैं। पानी के पास बैठकर भी प्यासी इस अनुभूति को कितना सार्थक रूप दिया है कुमुद जी ने –
“भवसागर में कुछ पानी की लहरें उठती-गिरती रहती हैं। क्या है यह उठना-गिरना? अक्सर यही देखा जाता है कि मीठे जल के स्रोत के मुहाने पर बैठे लोग भी प्यासे-के-प्यासे। एक बूँद की अनुभूति, एक लहर तक भी अन्दर तक नहीं उतर पाती। दुनिया-भर में खोजते हैं, दौड़ते-फिरते हैं, व्यर्थ ही आपाधापी कर लेते हैं, उस लहर की अनुभूति के लिए जिसके सागर अन्दर ही समाए हैं। एक जलकण भी भीतर गहरे उतर पाए, तो शाश्वतता मिल जाए। लहरो ं की तो बात ही क्या है।
जीवन-सागर की तलहटी में अनेकानेक अनुभव छिपे होते है, ये अनुभव उपजते हैं सुख-दुख, हर्ष-अवसाद, मान-अपमान, सरोकार-संवेदनाओं तथा संवेग इत्यादि से। इन्हीं की लहरें कविता बन छू लेना चाहती है ं अभिव्यक्ति-तट को।” हमारे जीवन का आधार है – प्रकृति। हमारी साँसों में, हमारी हर धड़कन में, हमारे रक्त की हर कणिका में प्रकृति का अस्तित्व वर्तमान है, विद्यमान है। फिर भी इंसान सबसे-अधिक हानि पहुँचा रहा है तो प्रकृति को। वह प्रकृति-हंता बन गया है, लेकिन कुमुद जी को प्रकृति से अनन्य लगाव है। उनकी हर धडकन में बसती है वह, इसी कारण उन्होंने कहा –
“वर्तमान युग में अधिकतर लोगों का प्रकृति से कोई संपर्क ही नहीं रहा है। प्रकृति व्यर्थ का व्याकरण लगती है। चिर-अवधूत निरंजना उसे अपनी प्रतिद्वंदी लगती है, जिसका उसे विजेता बनना है। किन्तु मेरा प्रकृति से वैसा ही नाता है, जैसे जीवन का हृदय-धड़कन से होता है। पेड़ पर चढ़ती गिलहरी मन को चंचलता से भरती है। डाल-डाल फुदकती गौरेंया झूमने का कारण बन जाती है।”
कुमुद जी वृक्षों से संवाद करती हैं, बादलों में, चाँद-तारों में आनंद की खोज करती हैं, पक्षियों के कलरव में जीवन का संगीत सुनती हैं, वन्य प्राणी जगत् में सह-अस्तित्व का अनुभव करती हैं, रात्रि की गहनता में भी, रोम-रोम में, स्पंदन का आभास करती हैं। ‘बरगद की जड़ें’ इसी प्रकृति-संपन्नता का संदेश देता हुआ काव्य है।
‘जीवन-कला’, ‘तोड़ो जंजीरें’, ‘स्मृति मंजरी’, ‘लागी लगन’, ‘संबंध सिंधु’ उनके अनुपम हाइकु-संग्रह हैं। ‘जीवन-कला’ में वह कहती हैं –
“भौतिक सुविधाओं से संपन्न मानव ने जीवन के हर पक्ष के लिए भौतिक व व्यावसायिक दृष्टिकोण अपना लिया है। जीवन जीना एक कला है, इसमें पारंगत मानव जीवन-आनंद पा सकता है। जीवन-कला का विशेषज्ञ अनेक समस्याओं व विसंगतियों का समाधान जीवन-कला की भंगिमाओं से निकाल लेता है। अणु-अणु से परिवर्तन हमें जीवन-कौशल से सुसज्जित कर देते हैं।
मैं कोई ज्ञानी संत नहीं हँू कि किसी के लिए जीवन-कला की निर्देशिका बना सकूँ। जीवन की चुनौतियों का सामना शस्त्र से नहीं हो सकता। चुनौतियों में सफल या असफल रहा व्यक्ति अपने अनुभव बाँट सकता है। उसी के आजमाए नुस्खे कारगर होते हैं। पगडंडियों पर चलते हुए कंटक चुग कर हटा दें, कुछ कंकड़ किनारे कर दें तो अन्य पथिकों के पग में ज़ख्म नहीं होते।
जीवन जीने की कला में अहम भूमिका माधुर्य की होती है। विष के वास को विश्वास में बदला जा सकता है। खंजर को मंजर बनाया जा सकता है। कोई पेचीदा कीमिया नहीं है। स्नेह के पात्र में समझ का जल भर दें, तो गंगाजल बन जाता है। पवित्र-पावन माधुर्य को जीवन में सम्मिश्रित कर हर कोई जीवन का कलाकार बन सकता है। जीवन गणित या अर्थशास्त्र नहीं है, जिसके फार्मूले हों। यह कला है, जिसमें सहजता और सरलता होनी चाहिए।” ‘संबंध सिंधु’ में उन्होंने रिश्तों की व्याख्या की है, जो सरल कार्य नहीं है। इस संग्रह की भूमिका में कुमुद जी कहती हैं –
“रिश्ते भी तो सागर-समान हैं, न जाने जीवनीयान को कब कौन-सी लहर पार लगा दे, कौन-सी डुबा दे? यहाँ सीपों में मोती बनते हैं, तो मगरमच्छ जीवित भी निगल जाया करते हैं। अगर प्रयास किया जाए, तो सेतु बना लंका पर विजय भी मिल सकती है।अथाह जलधि-तट बैठे प्यासे रह गए, तो मंथन करने पर सोमरस पी अमर हो गए।
संबंधों को आधार ही मनुष्य को राम या रावण बनाता है। संबंधों का लक्ष्य ही अर्जुन या दुर्योधन बनाता है। दुर्योधन के माध्यम से निज अभिलाषा की पूर्ति में धृतराष्ट्र को मानसिक रूप से अंधा कर दिया था। मैं यह नहीं सोचती कि संबंधों में बलिदान का अर्थ अत्याचार सहना होता है, परंतु मेरा यह अवश्य मानना है कि सूखी टहनी को जल में भिगोने से लचीली बन जाती है। यही लचीलापन संबंधों को मजबूती देता है।”
‘स्मृति मंजरी’ के हाइकु केवल स्मृतियाँ नहीं हैं – जीवन में लिपटा हुआ भावों का झरोखा हैं, जिसके पार वह अपने अतीत के दर्शन करती हैं। माँ के हाथ की सिकी रोटियाँ, कांजी के बड़े, आँगन में रखी वस्तुएँ, अपनी स्याही, दवा, तख्ती और स्लेट की, गाँवों में हुक्का गुड़गुड़ाते बुज़ुर्ग, जो अब शहरीकरण में कहीं खो से गए हैं, उन्हें बार-बार याद आते हैं। वह स्मृति मंजरी के पकने के बेला को याद करते हुए कहती हैं –
“हम सभी के पास निज स्मृतियों की भीनी-भीनी सुगंध होती है। इन स्मृति-मंजरियों से ऊर्जावान भी हो सकते हैं और हताशा के बादल भी बरस सकते हैं। घोर निराशा से सनी यादें भी उजाले के संकेत दे सकती हैं। जब हमें सचराचर जुड़ने का सामर्थ्य आ जाता है, तभी हम खुदी के कुएँ से निकल विशाल समुद्र बन जाते हैं।”
जंजीरें हमें अपनी पकड़ में लेती हैं, जकड़ लेती हैं, हमारा सर्वस्व हरण करने के लिए तत्पर रहती हैं। ये जंजीरें एक-ओर हमारे शरीर को जकड़ती हैं, तो अनेक बार हमारे मन, विचारों और चिंतन को भी जकड़ लेती हैं। तन की जकड़न से तो मुक्त हुआ जा सकता है, लेकिन मन की जकड़न से मुक्त होने के लिए बहुतसंघर्ष करना पड़ता है। इन जंजीरों को तोड़ना ही होगा, ताकि हम अपने चिंतन के आकाश में मुक्त भाव से विचरण कर सकें। तभी तो कुमुद जी कहती हैं –
”जंजीरंे मात्र भौतिक नहीं होती, इनसे कहीं-अधिक मज़बूत पकड़ होती है उन जंजीरों की, जो हमारी सोच, विचार और मानस को जकड़ें रहती हैं। इनकी कारा से छूटकर न-केवल नवविहान की प्रतिक्षा होती है, वरन् नवविहान के नवप्रकाश में नए पथ का सृजन होता है। पथ बदल जाते हैं, दृष्टि बदल जाती है, चलने के ढ़ंग बदल जाते हैं। जो नहीं बदलता, वह है धरातल और लक्ष्य। जकड़ा जीवन जीने का अभ्यास पड़ जाता है कि जकड़न सुखद लगने लगती है। हमारा मूल स्वभाव जकड़न-विरोधी है, वह आहलादित क्षणों में पल्लवित होता है, पुष्पित और पल्लवित होता है, पुष्पित और पल्लवित हो जीवंत बनता है।” स्पंदन कोई सामान्य नहीं है। वहाँ संकल्प हैं, आस्थाएं हैं, व्यग्रता है, जीवन-सत्य का उद्धाटन है, पौराणिक पात्रों के माध्यम से जीवन का साक्षात्कार है, आशाओं का संसार है, असफलता से लोहा लेने का आहान है, युद्ध के प्रति विरोध है, शांति-पथ पर चलने की कामना है, प्रकृति के प्रति असीम संभावनाएँ हैं। वास्तव में, स्पंदन से बना है अस्तित्व। रोआँ-रोआँ, रंच-रंच स्पंदन से भरा है। स्पंदन को महसूस करें, तो क्रांति घट जाती है। महसूस करने के अतिरिक्त कुछ कहना नहीं हैं –
“स्पंदन आकाश का ही एक रूप है। सदा से सबमें मौजूद है, चारों तरफ झर रहा है। हमीं ने कपाट बंद कर रखे हैं, कपाट खोलने-भर की देरी है। स्पंदन सिद्ध करने जैसी कोई चीज़ नहीं है। स्पंदन से तो मस्ती आनी चाहिए। आ जाए, आ जाए, न आए, तो लाने की कोई तकलीफ नहीं है।”
उम्र भर
पहेली जीवन की
नहीं सुलझी
कुछ बूझी हमने
कुछ बूझी जग ने
के माध्यम से कुमुद जी ने अपने जीवन में झाँकने का प्रयास किया है। तभी तो ‘झाँका भीतर’ जैसे तांका-संग्रह का सृजन हो सका। इन्हीं भावों की अभिव्यक्ति कुमुद जी ने ‘झाँका भीतर’ की मन की बात ‘अहम् ब्रह्मस्मि’ में की है –
“अगर मुझसे कोई पूछे कि तुम्हारी क्या स्थिति है, तो मैं कहूँगी कि ‘उस’ ने मेरे द्वार पर दस्तक दी है। मैंने ‘उस’ के लिए कपाट खोल दिए। नैनों की गहराई से झीनी-सी पारदर्शी दीवार का गिरना शेष है। दीवार है कि बस अब गिरी, तब गिरी। इस स्थिति का अनोखा रोमांच है, स्पंदन है, अनुभूति है। अब कैसे बताऊँ कि ईखरस बने गुड़ और चीनी में क्या भेद है। शब्दों और अर्थों की परिधियाँ बहुत संकीर्ण हैं। ऐंद्रिक अनुभवों की अभिव्यक्ति ही कठिनाई से होती है, फिर ‘उस’ का अनुभव तो अतींद्रिय है – कहने-सुनने से परे। फिर भी कहते हैं, सुनते हैं। लिखते और पढ़ते भी हैं।”
कुमुद जी की साधना निरंतर गतिशील है। यह साधना केवल जीवन-जगत की नहीं है, परमात्मा-तत्त्व की खोज की भी है। वह अपनी इस साधना में, अपने गंतव्य की प्राप्ति में निरंतर गतिशील रहें, यही कामना है। उनकी साधना पर लिखित डॉ. लालचन्द गुप्त ‘मंगल’ जी की इस पुस्तक का स्वागत होगा, क्योंकि यह एक साधन के सृजन को आत्मसात् करने का द्वार खोलेगी।
डॉ. गिरिराजशरण अग्रवाल
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