साहित्यशास्त्रीय अवधारणा

बहुमुखी प्रतिभा-सम्पन्न डॉ. कुमुद रामानंद बंसल, एक प्रतिष्ठित साहित्यकारके साथ-साथ, एक विवकेशील साहित्यशास्त्री भी हैं। इस दृष्टि से उनका ‘चिन्तन’ नामक ग्रन्थ विशेष उल्लेखनीय है। ‘चिन्तन’ में कुमुद जी के वे, तीन दर्ज़न, आलेख संकलित हैं, जो दो वर्षों (2016 और 2017) की अवधि में, ‘हरियाणा साहित्य
अकादमी’ द्वारा प्रकाशित विविध-विधात्मक ग्रन्थों की भूमिकाओं और ‘हरिगंधा’ मासिकी के सम्पादकीयों के रूप में लिखे गये हैं। यद्यपि, समवेत रूप में, यहाँ लेखिका का सांस्कृतिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और साहित्यिक दृष्टिकोण प्रकट हुआ है, तथापि उनका विशेष बल साहित्य के स्वरूप, साहित्य की भूमिका, वरिष्ठ साहित्यकारों के अवदान और नयी पीढ़ी में साहित्य के अंकुरण की स्थिति-गति आदि पर रहा है । निःसंदेह, यह बहुआयामी ‘चिन्तन’-मंजूषा लेखिका की साहित्य विषयक परिपक्व और स्वस्थ अवधारणा से लबालब है, जो युवा एवं प्रौढ़, दोनों वर्गों के साहित्यकारों और साहित्य-प्रेमियों के लिए सार्थक है, उपयोगी है, मार्गदर्शक है और है स्थायी महत्व-प्राप्त। आइये, डॉ. कुमुद बंसल की साहित्य-विषयक विचारणा,अवधारणा और चिन्तना पर थोड़ी-खुलकर चर्चा करें –
गहन अनुभूतियों की सुघड़ अभिव्यक्ति को साहित्य कहा जाता है। कुमुद बंसल के अनुसार, “सृष्टि के हर प्राणी में निज अभिव्यक्ति की चाह है, क्षमता है। अभिव्यक्ति, अभिव्यक्त करने वाले की, संवेदनाओं, अनुभवों, अनुभूतियों, सामाजिक प्रतिबद्धता, बौद्धिक व आध्यात्मिक स्तर, युगीन सत्य, परम सत्य, अस्तित्व-बोध, यथार्थ तथा आदर्श इत्यादि से प्रभावित होती है। इसे रचना का भाव-पक्ष कहा जाता है। चूँकि, आम इन्सान की तुलना में, साहित्यकार अधिक-संवेदनशील और पारदर्शी होता हैं, इसलिए लेखक का ”संवेदनशील चिन्तन मानव की मनोभूमि में पैठ बनाकर जब उसके भौतिक अस्तित्व व आदर्श में समन्वय बैठाने का प्रयास करता है, यथार्थ और आदर्श के संदर्भ में मानव-जीवन की व्याख्या करता है, तब प्प्प्ता त्कालिकताओं की धुन्ध लुप्त हो जाती है तथा दार्शनिकता की ऊँचाइयाँ और गहराइयाँ स्वतः स्थापित हो जाती हैं। ध्यातव्य है कि गहरे चिन्तन के अभाव में ग्लैमरस-चकाचौंध साहित्य को एक उत्पाद बनाती है, न कि मुकम्मल साहित्य।“
प्रभावशाली सृजनात्मक लेखन, पाठक का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करके, उसमें अपने प्रति, रुचि जगाता है। जिस लेखन में, नूतन निर्माण की संकल्पना में, प्रतिभा से निखारे हुए रस उद्भासित होते हैं या समाज में सार्थक परिवर्त्तन का प्रयास होता है, वह काल-सापेक्ष होते हुए भी कालजयी होता है। यहाँ
”साहित्यकार ऐसे पात्रों का सृजन करता है, जो सामाजिक, पारिवारिक एवं व्यक्तिगत जीवन की उठा-पटक, व्यथाएँ-वेदनाएँ, आकर्षण व रोमांस की राह पर, प्रज्वलित दीपक की मानिन्द, मार्गदर्शन करते हैं।…. राष्ट्र, समाज, प्रकृति, मानवीय मूल्य, आस्था-तंत्र इत्यादि से जुड़ने पर व्यक्ति अपनी पहचान, जीवन-अर्थ व
लक्ष्यों को प्राप्त करता है। इस सर्वांगीण विकास में साहित्य की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।“
वस्तुतः, ”साहित्यकार व्यक्ति की संज्ञानात्मक, भावात्मक तथा क्रियात्मक विशेषताओं का वह सुव्यवस्थित स्वरूप है, जो जन्मजात और अर्जित साहित्यिक गुणों की सहायता से समाज में उत्थान, प्रगति, मानवीय गुणों, आदर्शों व राष्ट्रीय कर्त्तव्यों को समायोजित करने का प्रयास करता है।“ यह एक सर्वमान्य सत्य है कि
जीवन के धरातल से उपजे प्रस्फुटन को लेखक अपनी प्रतिभा के उपकरणों से सजाता-संवारता है। इसलिए ”सर्जक साहित्यकार को अगर मैं ब्रह्मा-विष्णु-महेश कहूँ , तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। वह त्रिकालदर्शी, अनागतदर्शी, मनीषी, परिभू, स्वयंभू है। यह बात अलग है कि आजकल हर तीसरा व्यक्ति स्वयं को साहित्यकार मानता है – भले ही वह कसौटी पर खरा न उतरे।“ यहीं, डॉ. कुमुद बंसल के अनुसार, यह उल्लेख करना भी अनिवार्य है कि ‘आज विज्ञान और तकनीकी ने संवेदनाओं के सागर को सुखा दिया है। साहित्य-सृजन व्यावसायिक हो गया है। सृजनधर्मा पीढ़ी जल्दबाज़ी व पैंतरेबाज़ी का शिकार हो रही है। उपभोक्तावादी युग में विशुद्ध साहित्य के लेखक व पाठक आसानी से उपलब्ध नहीं हैं।’
स्वाधीन भारत में तथाकथित ‘अनुभूति की प्रामाणिकता’, ‘भोगा हुआ यथार्थ’, ‘प्रतिबद्धता’, ‘आधुनिकता’ और ‘उत्तर-आधुनिकता’ आदि के नाम पर जिस साहित्य का सृजन और पोषण हुआ है, उससे भारतीय जीवन और साहित्य को बहुत हानि उठानी पड़ी है। डॉ. कुमुद बंसल, पदे-पदे, इस हानि से बाखबर हैं और
प्रश्नात्मक मुद्रा में अपने सजग पाठकों को यों सचेत करती हैं – ”अगर रचनाकार की दृष्टि को रंगीन चश्मा पहना दें, तो क्या होगा? अगर साहित्यकार की राजनीतिक और आर्थिक प्रतिबद्धताएँ बलवती होने लगें, तो क्या होगा? भारतीय संस्कृति अथवा सांस्कृतिक मूल्यों की चर्चा करने को साहित्यकार साम्प्रदायिक या
हीन मानने लगें, तो क्या होगा? कल्पना सर्जन का आधार है, किन्तु कल्पनाओं कीअभिव्यक्ति में छिछोरापन आ जाए, तो क्या होगा? बालसाहित्य से नैतिकता कापाठ लुप्त हो जाए, तो क्या होगा? जब रचनाएँ लीला-भाव रहित हो स्थितिशील हो जाएँ, तो क्या होगा? अगर गम्भीरता आग्रही बन जाए, तो क्या होगा? अगर
रचनाधर्मिता प्रयोग करने से कतराए, तो क्या होगा? अगर साहित्य भारतीयता को पोषित न करे, तो क्या होगा? ये बिन्दु (मैं) पाठको ं के विचारार्थ छोड़ती हूँ।“महोदया ! आपके पाठकों का उत्तर एकदम सीधा और स्पष्ट है – हमें‘खण्ड-खण्ड पाखण्ड’ और देश-समाज की बाड़ेबंदी करने वाला साहित्य नही चाहिए। हम आपसे शत-प्रतिशत सहमत हैं कि ”वर्त्तमान गहन-अंधेरी गलियों के चक्रव्यूह में फँसा वर्त्तमान-युग कातर निगाहों से ऐसे साहित्यिक सृजन को ताक रहा है, जो मानसिक उलझनों से त्रस्त मस्तिष्क में अमृत-बूँदों का संचार करे, भेदभाव से घायल समाज को समरसता का माधुर्य दे, बिखरते हुए मानव-मूल्यों को गूँथे तथा
यह समझाए कि राष्ट्रहित, धर्म-जाति या व्यक्तिगत हित से, ऊँचा होता है।“ साहित्य-विमुख और संस्कृति-च्युत हो चुकी युवा-पीढ़ी को यू-टर्न दिलाना, डॉ. कुमुद बंसल अपने लिए, सबसे बड़ी चिन्ता और चुनौती मानती हैं।
उनकी इस ‘कथनी’ को हमने ‘करनी’ में परिवर्तित होते देखा है। हरियाणा साहित्य अकादमी की निदेशक के रूप में, हरियाणा-भर में, युवा-पीढ़ी के लिए आयोजित, ‘लेखन-प्रशिक्षण कार्यशालाएँ’ और ‘लेखन-परिष्कार कार्यशालाएँ’ इसकी जीती-जागती मिसाल हैं। फलस्वरूप, आज हरियाणा के बहुत-सारे युवा साहित्य-सृजन में रुचि ले रहे हैं। इन युवाओं के मार्गदर्शनार्थ डॉ. कुमुद बंसल ने जो मानक/दिशा-निर्देश तय किये थे, वे नव-दीक्षित के लिए तो रामबाण हैं ही, कुशल कारीगर के लिए भी संजीवनी का कार्य करते हैं –
सर्वप्रथम, इस संदर्भ में, डॉ. बंसल का ”नवोदित रचनाकारों से कहना है कि साहित्य-सृजन कोई टोटका नहीं है कि कलम के दवात में डुबकी लगाते ही पन्नों पर राष्ट्र व समाज-हित में साहित्य-सृजन हो जाएगा। सृजन हेतु भागीरथ प्रयास करने पड़ते हैं, जटायु-सी जुझारू वृत्ति रखनी पड़ती है, शब्दों को उड़ान देने के लिए बा़ज पक्षी-सी सोच को पल्लवित करना पड़ता है।
“ दूसरी बात, ”मंज़िल तक पहुँचने के लिए पहला कदम उठाना तथा लगातार उठाते रहना अति-आवश्यक है। इस कदम-उठाने में व्यग्रता व तनाव नहीं होना चाहिए। तनाव का कोहरा छाँटकर, शान्त-मन से गुनगुनाते हुए, सहजता से चलते रहिए, चलते रहिए।“
तीसरी बात, ”साहित्य लेखन में अभ्यास के दौरान हमें इस बात के प्रति सचेत रहना होगा कि दिन-भर में अनेक विचार उभरते है ं – अक्सर जमघट भी लगजाता है। ये विचार शब्दों का जामा ओढ़, लेखनी के माध्यम से, कागज़ पर फिंक जाते हैं – इस तरह का लेखन अर्थहीन-बकवास बन जाता है।… अगर भीतरी शोर से बचना है, लेखन को सार्थक बनाना है, तो बेतुके-से विचार व उनके शोर को रोककर मौन में उतरना होगा।“
चौथी बात, नवोदित लेखक से यह अपेक्षा है कि वह अपनी रचना में व्यक्तिगत असफलताओं, हताशाओं और कुण्ठाओं का सामान्यीकरण न करे, क्योंकि सामाजिक सरोकारों व मानवीय मूल्यों का समाज की रगो ं में संचरण कराने का दायित्व उसी का तो है।
पाँचवीं महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ”चयनित विधा-लेखन में, दरिया-सी रवानगी आने पर ही, लेखन करना सफल होगा।
“ छठी और अन्तिम बात यह है कि साहित्य-लेखन के लिए, लेखन- विधा के कला-पक्ष व तकनीकी-पक्ष में, सिद्धस्त होना भी अनिवार्य है, क्योंकि भाषा के सम्यक् ज्ञान, शब्द-भण्डार में लगातार-वृद्धि तथा अनवरत अभ्यास से ही अभिव्यक्ति प्रभावपूर्ण और आकर्षक बनती है। ”शब्दों में वो क्षमता है कि दर्द से कराहते व्यक्ति को हँसा सकंे। हँसते हुए व्यक्ति के नेत्रों से कारुण्य की अश्रुधार फूट पड़े। शब्दों के संयोजन से रौद्र-भाव का वो ताप फैले कि अश्रु भाप
बनके उड़ जाएँ।“
संक्षेप में, डॉ. कुमुद बंसल भारतीय जीवन-दर्शन, जीवन-मूल्यों और संस्कारों-सदाचारों की धाता हैं। उनकी सोच-समझ, पहचान-परख और मूल्यांकन-निष्कर्षण, सभी-कुछ, भारतीय चिन्तन के आलोक में ग्रहणीय है। उनकी दृष्टि वैज्ञानिक, सोच आधुनिक और व्याख्या स्वीकार्य है। इन्हीं तत्त्वों से निर्मित हुआ है उनका जीवनशास्त्र और साहित्यशास्त्र; जिसे अंगीकार करके कोई भी राष्ट्र, सहज ही, सबल-सक्षम और स्वस्थ-समरस बन सकता है – सत्यम्, शिवम्,सुन्दरम्।

Posted in Kumud ki kalam.

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