जडो की तलाश मे

इतिहास के प्रति हमारा दृष्टिकोण वैज्ञानिक कम, उबाऊ अधिक, सामान्य जन से दूर, कुछ गिनी-चुनी हस्तियों के इर्द-गिर्द घूमता है। इतिहास को राजा-महाराजाओं के गुणगान, युद्धों तक सीमित कर दिया जाता है। भवनों की कलात्मकता, राजभवनों के ऐश्वर्य एवं वैभव की चर्चा तो होती है; लेकिन यह अज्ञात ही रह जाता है कि आम आदमी की हालत कैसी थी, उसका जीवन कितना सुखी था, इसका अता-पता नहीं चलता। इसका मुख्य कारण है- सामान्य आदमी (राजा, सामन्त से इतर) की स्थिति क्या थी? दुनिया के इतिहास को खँगालने वाले लोग अपने परिवार की तीन पीढ़ी से भी पूरी तरह परिचित नहीं होते। किसी राजा, महाराजा, शासक की समृद्धि का मूल आधार कौन है, इसकी ओर हमारा ध्यान ही नहीं जाता। लोकतन्त्र हो या राजतन्त्र, उसकी दृढ़ता का आधार स्तम्भ सदा प्रजा ही है। जब राष्ट्र की शक्ति और जीवन-मूल्यों की बात होती है, तो परोक्षरूप सें इसमें सम्मिलित यह वही सामान्यजन है, जो ईमानदारी और त्याग का जीवन जीकर समाज का नव निर्माण करता है। इस पूरे त्यागमय जीवन के पीछे वे जीवन मूल्य हैं, जो किसी समाज को मज़बूत बनाते हैं। जिनमे ं व्यष्टि के स्थान पर समष्टि का महत्त्व होता है, निज हित और उन्नति के स्थान पर सर्वहित और सबकी उन्नति का महत्त्व स्थापित होता है।
डॉ. कुमुद रामानंद बंसल ने अपने पारिवारिक इतिहास का अवगाहन करने का प्रयास किया है। यह इतिहास केवल उनके परिवार का ही इतिहास नहीं है, बल्कि उस समय की राष्ट्रीय या सामाजिक चेतना का भी दर्पण है। इतिहास को विश्वसनीय बनाने के लिए समय विशेष की प्रथाएँ, जीवन शैली, शिक्षा,
सांस्कृतिक चेतना आदि का बहुत बड़ा हाथ होता है। कुमुद जी ने एक-एक अभिलेख को सँजोने, वेशभूषा, तत्कालीन मुद्रा, प्रमाणपत्र को खोजने में बहुत श्रम किया है। यह परिवार अपनी उदारता से किस प्रकार सामाजिक उन्नति में सहायक रहा है, उसका मार्मिक चित्रण कई स्थानों पर मिलेगा। पालन करने वाली धाय को माँ का दर्जा देना और उसका मनसा-वाचा-कर्मणा निर्वाह करना, अशक्त होने पर नौकर-चाकर का भी पूरा ध्यान रखना, बहुत बड़े आदर्श नागरिक का उदाहरण है। परोपकार की यह भावना ही किसी उन्नत समाज की रीढ़ है। परोपकार की भावना इस परिवार से सीखने को मिलती है।
10 अध्याय और 16 अनुभाग में लिखे इस पारिवारिक इतिहास की रोशनी शिक्षा, कला-जगत् खेलकूद, साहसिक गतिविधियों से होते हुए समाज के ज़रुरतमन्द वर्ग के लिए समर्पण की कथा भी कहती है। किसी भी पारिवारिक उच्च आदर्शों और जीवन-मूल्यों की रक्षा के पीछे पारिवारिक संस्कार, आपसी आत्मीयता, दृष्टि और हृदय की विशालता और स्वाभिमान प्रमुख होते है ं। धनाभाव न होने पर भी अंहकार न होना बड़ी बात है। जब रुढ़िवादिता और नारी शिक्षा के प्रति उदासीनता देश में छाई हुई थी, उस काल में नारी शिक्षा को महत्त्व देना बहुत बड़ी बात कही जाएगी। ‘अभिरुचियाँ’ और ‘शिक्षा’ अनुभाग में इसके प्रमाण मौजूद हैं।
इस पुस्तक के प्रणयन के पीछे गहन चिन्तन का हाथ तो है ही। लेकिन यह स्थिति अनायास नहीं आई। इसके लिए अनुभूतियों को खँगालना ज़रुरी है। पार्थ के साथ मन की कुछ दुविधा थी कुरुक्षेत्र के युद्ध में, वैसी तो नहीं बल्कि कुछ वैराग्य के कारण डॉ. कुमुद बंसल की मन की स्थिति संन्यास की ओर प्रवृत थी। फरवरी 2013 में हम्पी (कर्नाटक) में हस्तहीन मूर्त्ति देखी। अवचेतन में कहीं वह मूर्त्ति घर कर गई और बार-बार स्वपन के समय वह मूर्त्ति राम सुख दास बाबा की प्रतीत होती। 23 जनवरी, 2015 को बाबा जी मल्ला की पूजा उपरान्त इस इतिहास लेखन का निश्चय किया गया। इस अध्याय में कुमुद जी की आत्मानुभूति अध्यात्म की गहराइयों का अवगाहन करती दृष्टिगत होती है। अपने पूर्वजों से सूक्ष्म साक्षात्कार का दिग्दर्शन कराते हुए इन्होंने अपने कार्य को आगे बढ़ाया। भावुक साहित्यकार इतिहास लिखे, तो चुनौतियाँ बहुत होती हैं। पहली चुनौती निरपेक्ष भाव से घटनाओं और उनके परिणाम को लेकर होती है। बचपन में डायरी-लेखन की प्रवृति ने इस क्षेत्र को अधिक आसान बना दिया।
इस अध्याय को लिखते समय कुमुद जी अपने बचपन की स्मृतियों को प्रत्यक्ष करती चलती हैं, जिससे यह अध्याय गद्यकाव्य का उत्कृष्ट उदाहरण बन गया है, जैसे – ‘मुझे अक्सर एहसास होता है कि पुरखे हमारे घर के आस-पास पक्षियों की तरह मँडराते हैं।’ लेखिका उपहार स्वरूप पूर्वजों से 12 वर्ष नितान्त एकान्त वनवास की अपेक्षा रखती है। यह इतिहास लेखन के प्रति उनकी निष्ठा, समर्पण और एकाग्रता का परिचायक है। सामान्य पाठक भी इसमें से अपने लिए कुछ-न-कुछ गहन आध्यात्मिक सत्य तलाश कर लेगा। इस इतिहास का महत्त्व तभी है, जब वर्तमान पीढ़ी अपने पूर्वजों की स्वस्थ परम्परा को आत्मसात् करके विकसित करे, न कि उनके किए गए कार्यों को बिना कोई सत्कर्म किए भुनाती रहे।
‘प्रेरक प्रसंग’ बहुत महत्त्वपूर्ण है। आज के सन्दर्भ में बहुत-सी बातें अनुकरणीय तो हैं ही, प्रासंगिक भी हैं।
‘सुगन्ध’ में उल्लिखित विचारों की खुशबू दूर तक जाती है। आखिर परिवार के लोगों ने यह उदारता और शक्ति कहाँ से पाई? इस शक्ति को प्राप्त करने का एक ही उत्तर होगा – ‘धर्माचरण’। धर्माचरण हमारे मनोमस्तिष्क को शुद्ध करता है, शुद्ध मन हमारे कर्म को और यही शुद्ध कर्म हमारे उज्जवल भविष्य का
निर्माण करते हैं। इस अनुभाग में अकाल और महामारी के कठिन समय में इस परिवार की समाज-सेवा उच्च आदर्शों और त्याग का नायाब नमूना है। यही तो वास्तविक धर्म है, जिसको आजादी के बाद संकीर्ण विचारधारा के लोगों ने घोर सम्प्रदाय और नफ़रत का रूप दे दिया है।
कुमुद जी ने बहुत ही तटस्थ भाव से पारिवारिक इतिहास की प्रस्तुति की है। ऐसे काम के लिए बहुत धैर्य की आवश्यकता होती है। परिवार के सदस्यों में सिक्के, टिकट आदि के संग्रह की रुचि रही है, जो कुमुद जी के कार्य को और अधिक प्रमाणिक बनाती है। बहुत सारे राजकीय दस्तावेज़ भी इस पुस्तक में सम्मिलित किए गए हैं, जिससे इनके इतिहास-लेखन की गुणवता स्वतः सिद्ध है। डॉ. कुमुद रामानंद बंसल का यह शोध-कार्य इतिहास के प्रति नए दृष्टिकोण का सूत्रपात करेगा, ऐसी आशा है।

रामेश्वर कम्बोज ‘हिमांशु’
पूर्व प्राचार्य, केन्द्रीय विद्यालय संगठन
(मानव संसाधन मन्त्रालय)

Posted in Kumud ki kalam.

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