बहुपठित-बहुलिखित डॉ. कुमुद बंसल, प्रथमतः और अन्ततः, एक कवयित्रीही हैं – अब तक प्रकाशित उनके 15 काव्य-संग्रहों से यह तथ्य स्वतः सिद्ध हो जाता है। आइये, उनकी प्रत्येक काव्य-कृति की राह से गुज़रकर सच्चाई जाननेका प्रयास करें –
र े मन ! (2011)
कुमुद रामानंद बंसल का प्रथम काव्य-संग्रह ‘रे मन!’ है, जिसमें तीन खण्डों- ‘माधव चेतना’, ‘रे मन!’, ‘रिश्तों के बाँस’ – के अन्तर्गत, क्रमशः, 33$17$30= कुल 80, ”कुछ सुनी, कुछ अनुभव-गही“, कविताएँ संगृहीत हैं और अनन्य समर्पणशीलता
स्पृहणीय बन पड़ी है –
“नहीं तमन्ना लेखन हो कालजयी, साहित्यिक दंगल में हो विजयी।
मन में उभरी बात मैंने कही, कुछ सुनी, कुछ अनुभव गही।। शब्दों के कोश पास थे, जब वह अनुभव की रेत पर तपे, अनेक
कसौटियों पर नपे, तभी उनमें अनुभूतियों का अंकन हुआ, मन का तर्पण हुआ। यही तर्पण कविताओं का संकलन हुआ।
मैं वो परिन्दा हूँ, जो बिना पंख नीलगगन में अनन्त उड़ान भर रहा है। पंख थक जाते, इसलिए पंखों की आवश्यकता न थी। किन्तु उड़ान में प्रेरणा के अनेक पड़ाव थे। मेरे दोनों भाइयों – प्रिय अरविन्द व प्रिय पंकज- ने जीवन-यात्रा में संबल दिया।“
माधव चेतना नामक प्रथम खंड में कवयित्री के अध्यात्मिक पक्ष से
हमारा परिचय होता है। इस खंड से निम्न उद्धरण है –
चाहे युगों के बाद ही, पर आएँगे
मयूरपंखी-मुकुटधारी मेरे कृष्ण वही
पृष्ठ सं 25
दूसरे खंड में ‘रे मन’ के अन्तर्गत का अनुरोध करते हुए, मानव-मन की अगणित परतों, विचित्रताओं तथा अपने चतुर्दिक् पल-पल परिवर्तित होती सुख-दुःखात्मक परिस्थितियों का लेखा-जोखा तथा निरीक्षण-परीक्षण किया गया है।
रे मन!
क्यों तू बना बैठा है
मौन साधक सा?
कुछ तो बोल
किस चिन्तन पर तू है बाध्य?
कौन है तेरा साध्य?
कुछ तो बोल
क्यों तू तकता आशाओं को
मौन पुजारी-सा?
कछुए की तरह अंग समेटे
कठोर कुठारी-सा
कुछ तो बोल
कैसे मैं तुझे लाड़ लड़ाऊँ
कहे तो जीवन-पुष्प चढ़ाऊँ
कुछ तो बोल
रे मन!
अपने मन की गिरह खोल
पृष्ठ सं 44
काव्य-संग्रह का अन्तिम खण्ड ‘रिश्तों के बाँस’, अपने शीर्षक के अनुरूप, कवयित्री की निजी, पारिवारिक और सांसारिक ज़िन्दगी को जानने-समझने का सबल आधार प्रस्तुत करता है। प्रस्तुत हैं कतिपय उदाहरण, जो अपनी लक्षणा-व्यंजना
स्वयं बयान कर रहे हैं –
सुनने वाला कोई नहीं, पक्षी गाए गीत रे !
पी-पी बोले पपीहा, कहाँ मेरा मीत रे !
कोयल का गान हारा, कौओं की जीत रे !
मकरन्द भ्रमर नहीं, भई झींगुरों की रीत रे !
द्वैत भरा जग, अद्वैत की भूला नीत रे !
पृष्ठ सं 81
ममता भरा रिश्ता
ममता का एहसास न दे सका
संवेदना की झलक पाने को
तरसा करते प्राण मेरे
यही उम्मीद थी, सब समझेंगे गान मेरे
आधार भरा रिश्ता,
आधार का आभास न दे सका
पृष्ठ सं 78
आँखों में आँसू बह रहे
रिश्तें हैं चक्रव्यूह यह कह रहे
रिश्तों का तिमिर हरने
क्या आएगा सूर्य-किरण का उल्लास ?
पृष्ठ सं 61
रिश्तों की चुभन से छलनी है मन
फिर भी प्यार लिए फिरती हूँ
लहूलुहान-सी दर पर पड़ी
साँसों के दो तार लिए फिरती हूँ
ये अपूर्ण रिश्ते मुझको नहीं भाते
सपनों में संसार लिए फिरती हूँ
संबंध जले हृदय में
अंगार लिए फिरती हूँ
पृष्ठ सं 72
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स्पंदन (2012)
पंचमहातत्त्व में से वायु-तत्त्व को समर्पित प्रस्तुत काव्य-संग्रह स्पंदन में, दीर्घ-लघु, 126 कविताएँ/क्षणिकाएँ संगृहीत हैं। अपने ‘स्पंदन’ शीर्षक की सार्थकता को प्रमाणित करती इन कविताओं में, अन्तर्जगत् एवं बहिर्जगत् से सम्बन्धित, विविध भावों की ऊर्मियांे-रश्मियों, कंपन-सिहरन, धड़कन-फड़कन, गंुजन-बुद्बुदन और आहट-सनसनाहट आदि के दर्शन, सहज ही, किये जा सकते हैं। बकौल रचयित्री –
“मृत्यु में भी स्पंदन है नवजीवन का। फिर जीवन कैसे स्पंदनहीन हो सकता है ! श्याम मेघों से, उमड़ते-घुमड़ते मेघों से बरसती बूँदें धरा के हृदय को गुदगुदा देती हैं। शिशु का हास्य वेद-ऋचाओं की याद दिलाता है। मंदिर का घंटानाद परम से सम्बंध का अहसास दिला रोम-रोम स्पंदित करता है। स्थिर से पानी में कंकर फैंकने से बने गोल-गोल घेरे, ताने-बाने से वस्त्र बुनते किसी जुलाहे की पारंगत उंगलियों की हरकतों की ओर इंगित करते हैं। अति सुख या दुख के क्षणों में एक संज्ञाहीनता-सी होती है, जिसकी ओट से स्पंदन भी झाँकता है। इस स्पंदन में छिपी होती है झंकार, गूँज, निमंत्रण, अनहद नाद, मौन और संवाद। ऐसे ही स्पंदनयुक्त क्षणों का परिणाम है यह काव्य-संग्रह।
जीवन परीक्षालय है। सूरज हमारी आँख के लिए नहीं रुकता कि जब हम आँख खोलेंगे, तब निकलेगा। समवत्, स्पंदन अहर्निश गूँज रहा है। हमें बस महसूस करना है। स्पंदित मन में तरंगें उस क्षण के स्वभाव से उठती हैं। स्पंदन में मैंने हस्तक्षेप नहीं किया। खेलने दिया उसे, नाचने दिया। जो भी हुआ, ठीक था। जिस भाव से उठा, उसी भाव में शब्द बन पन्नों मे ं ढल गया। स्पंदन को
अविचल भाव से देखा, जिया और लिखा। स्पंदन से बना है अस्तित्व। रोआँ-रोआँ, रंच-रंच स्पंदन से भरा है। स्पंदन को महसूस करें, तो क्रांति घट जाती है। महसूस करने के अतिरिक्त कुछ करना नहीं है।
स्पंदन आकाश का ही एक रूप है। सदा से सब में मौजूद है। चारों तरफ झर रहा हैं। हमने ही कपाट बंद कर रखे हैं। कपाट खोलने-भर की देर है। स्पंदन सिद्ध करने जैसी कोई चीज़ नहीं है। स्पंदन से तो मस्ती आनी चाहिए। आ जाए, आ जाए, न आए तो लाने की कोई तकनीक नहीं है।
‘स्पंदन’ में अगर शिल्प, कौशल, भाषा, व्याकरण के नियम, छंद की कसौटियाँ खोजोगे, तो शायद कुछ हाथ न लगे। हाँ, ‘स्पंदन’ भरा है जीवंतता से। छू लो, महसूस कर लो, स्पंदित हो जाओ।” यही कारण है कि ”स्पंदन भरा है जीवंतता से। छू लो, महसूस कर लो, स्पंदित हो जाओ।“ कुमुद बंसल के इस कथन की सत्यता उस समय उजागर हो उठती है, जब हम ‘स्पंदन’ में से निःसृत एक विविधवर्णी-अजस्र भावधारा को देखकर रोमांचित हो उठते हैं। यथा –
ऐसा हमारा स्वराज
टूटे नालंदा, तक्षशिला,
खंडित हुआ स्वाभिमान
रैम्प पर रेंगती जवानी
लुप्त हुए रागों के अलाप
देख अपनी यह दुर्दशा
सोने की चिड़िया करती विलाप
पृष्ठ सं 27
उम्मीद भरा कोई उद्घोष हो
संकटों से जूझने का जोश हो
रक्त को अपने शिथिल न पड़ने दे
निमन्त्रण दे बादलों को,
बिजली कड़कने दे
यह संघर्ष है सन्धि-काल का
नवप्रभात, उन्नत, उज्ज्वल भाल का
पृष्ठ सं 21
होगा क्या अन्त इस उड़ान का
नहीं चाहिए वृक्ष पर घोंसला,
नहीं चाहिए अपनों से चुभन
यह उड़ान ही बन जाए अनंत
पृष्ठ सं 54
जग की कटुता ने जब-जब रुलाया
परिन्दे को नई परवाज़ का ख़याल आया
पृष्ठ सं 102
आँसू भी नहीं लगते अब नमकीन
जब से छोड़ा हमने होना ग़मगीन
पृष्ठ सं 104
कलियुग में झूठ बिकता है
हर युग में सच टिकता है
पृष्ठ सं 104
मृत्यु मात्र घुलना है, पिघलना है
मिट्टी का मिट्टी में ही मिलना है
पृष्ठ सं 106
झीना उजास (2012)
अन्तरराष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ को समर्पित प्रस्तुत काव्य-संग्रह में 83 कविताएँ संगृहीत हैं। इनमें से संग्रह की शीर्षक-कविता ‘झीना उजास’ पाँच पृष्ठों में सम्पन्न हुई है, जिसे, सहज ही, ‘लम्बी कविता’ माना जा सकता है। यहीं यह भी उल्लेखनीय है कि संग्रह की ‘कृष्ण-उजाला’ कविता मे ं सामाजिक समरसता पर बल दिया गया है, जबकि शेष समूचा काव्य-संग्रह कृष्ण से संवाद है। बकौल कवयित्री –
“भौतिक समृद्धि और सम्पन्नता से परिपूर्ण पारिवारिक पृष्ठभूमि में जो आधार मिला, वह आध्यात्मिकता व सनातनधर्मी पूजा-अर्चना का था। जन्माष्टमी के पर्व पर माँ ने कभी उपवास नहीं रखा। वह सदा यही कहती, ‘मेरे कान्हा आएंगे, बाल-गोपाल रूप धरकर आएंगे। आज उत्सव का दिन है। मंगल दिवस है। आनंद का महोत्सव है।’ दिन भर मिठाइयाँ बाँटती। फल बाँटती। खुद भी फूली ना समाती। यही माँ पावन नवरात्रि के दिनों में आदि शक्ति माँ दुर्गा की मूर्त्ति मध्य में स्थापित कर नौ दिन तक उपवास रखती और कहती कि ये नौ दिन तन और मन को साधने के लिए हैं। नवें दिन हवन होता, जिसमें पंडित जी द्वारा किए गए मंत्रोच्चारण में पिता के स्वर भी सुनाई पड़ते।
धन का प्रचुर बाहुल्य बहुत समय तक अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सका। ध्रुव, नचिकेता, मीरा, प्रहलाद की कहानियाँ, पिता द्वारा सिखाए गए वेद-मंत्र, पिता के पुस्तकालय में रखे अनेक उपनिषद् सहज ही मेरे युवा मन को परम सत्ता
के अहसास की ओर अग्रसर करते। मन भारतीय-जनमानस की उस चीज़ की खोज में लगा रहा, जिसके
कारण चाणक्य द्वारा प्रशिक्षित बिना हथियार वाले शिष्य सिकंदर की सर्वश्रेष्ठ फौज के योद्धाओं को वापस लौटने पर मजबूर कर देते। गिरिधर नागर से प्रेम-सगाई कर मीराबाई कृष्ण में समा जाती, गुरु गोबिंद सिंह के चालीस निहंग औरंगजे़ब की दमनकारी, हत्यारी सेना का सामना कर उसे पीछे धकेल देते। दर्शन-शास्त्र में एम. ए. करते हुए एक वर्ष तक भारतीय दर्शन का अध्ययन करना, माता-पिता के साथ नियमित रूप से वृंदावन जाना, चारों धाम की यात्राएँ करना, माँ की अनन्य कृष्णभक्ति मेरे अवचेतन मानस पर धीरे-धीरे अपनी जगह बना रहे थे।
कुछ-कुछ समझ में आने लगा कि जब तुच्छ अहम् पिघल जाता है, विलीन हो जाता है, मिट जाता है, बालू की भीति की भाँति भुरभुरा कर गिर पड़ता है, तब वह घटता है जो मीरा, चाणक्य के साथ घटा। संकीर्ण दायरों में परम आभा नहीं समाती। मन के हवनकुंड में, इच्छाओं की अग्नि के प्रकाश में कृष्ण का विराट रूप नहीं दिखता। युद्धक्षेत्र में कृष्ण के परम सखा अर्जुन का मन भी जब तक मोह-ग्रसित था, जब तक उसमें सहज समर्पण-भाव नहीं था, तब तक कृष्ण का दिव्य रूप उसे नहीं दिखा। मोह हटा, तो वह घटा।
सुना है कि जगत् मिथ्या है। जगत् को मिथ्या मानने वालों से मुझे कहना है कि इसी जगत् के एक कारागार में कृष्ण-जन्म हुआ, यमुना उतावली हुई चरण स्पर्श को। माँ यशोदा ने बाँध दिया था रस्सी से, गोपियों ने इस आस में कितने ही प्रहर बिता दिये कि कब छींके पर रखा माखन-भरा घड़ा कान्हा फोड़ेगा और वह शिकायत करने, कान्हा को पिटवाने, नंद जी के पास जाएँगी। कुब्जा ने भी राह तकी कि कब उसका उद्धार होगा। राधा बाट जोहती कि कब उसके मोहन मथुरा से लौट कर आवेंगे। चौसर की बाज़ी में हारा द्रौपदी का मान उम्मीद लगाए बैठा था कि कब धर्म की स्थापना के लिए भगवान अपने मुखारविंद से गीताज्ञान देंगे, सुदामा प्रतीक्षा में थे कि कब तन्दुल भेंट करें अपने बाल-सखा को। गांधारी के श्राप की लाज भी भगवान ने इसी मिथ्या जगत् में रखी थी। मिथ्या ही सही, पर इसी जग ने ही तो मुझे कृष्ण का एहसास दिलाया।
इसी जग में रहते हुए मेरे मानस की कन्दराओं में प्रकाश फैला। कृष्ण की मोहिनी सूरत ही वह माध्यम है, जो परम कृष्णतत्व से जोड़ती है। अपने अस्तित्व के सीमित दायरों का भान ही असीमितता की ओर इशारा है। कैसे भुलूँ उन क्षणों को, जब क्षण युग हो गए।
अनेक जन्मों के पापों में लिपटी पामरमति केशव के दर्शन हेतु ऐसे तड़पती है, जैसे जल-बिन मछली। यह काव्य-संग्रह कृष्ण से संवाद है। यह संवाद कभी आर्त आग्रह है, कभी पीतांबर को छू लेने की उत्कंठा है, कभी कजरारे नयन, घुंघराले बालों से समोहित मन है, कभी बांसुरी की धुन पर नाचता बावरा तन है, कभी जन्म-जन्मांतर की दूरी मिटाने को व्याकुल मानस है। मन कहता है कि मुझे कंस जानकर मेरा वध कर दो या शिशुपाल मानकर सुदर्शन-चक्र चला दो। कुछ भी करो, पर अपने से दूर न रखो।
राशोबा शिक्षण महाविद्यालय में जब छात्र-अध्यापक-अध्यापिकाओं से चर्चा करती हूँ , तो छात्र अक्सर प्रश्न करते हैं कि कृष्ण को पाएँ कैसे? तो मैं कहती हूँ कि जिसे जैसे खोया हो, उसे वैसे ही तो पाएंगे। जहाँ खोया, तो वहीं पाएंगे। परमात्मा को भी हम पा लेना चाहते हैं! जो पास नहीं है, उसे पा लेने में अहम् को चुनौती है, निमंत्रण है बुलावा है। पा लेने की तुष्टि से अहंकार पोषित होता है। दम्भ के पंख निकल आते हैं। आत्मा ने परमात्मा को छोड़ा ही कब है और छोड़ कर जाएगी भी कहाँ! हृदय में धड़कन उसकी है, जीवन में प्राण उसका है। जन्में हैं तो कृष्ण-कृपा से, जीएंगे तो उसकी अनुकम्पा से। एक दिन उसी में पिघल जाना है,
विलीन हो जाना है।
जिस क्षण उस परम-प्यारे की ललक की छोटी-सी बूँद मिल जाए, उसमें पिघलने की उत्कंठा घर कर जाए, पीड़ा उठे, दर्द उठे, विरह की अग्नि धधक जाए, वही एक क्षण भी पर्याप्त है। उसमें और मुझमें कोई फासला न हो।
इन फासलों की गर्द ने ही मंजर धुंधला दिए हैं। बेचारी अक्ल ने सारी तर्कशक्ति लगा दी है – उसे पा लेने का ढंग खोजने में, सलीका तलाशने में, ताले की चाबी बना लेने में। पर हुआ कुछ नहीं। होता भी कैसे?
कई बार ऐसा हुआ है कि स्वयं को सात कोठड़ियों के भीतर बंद पाया। देह तन्दूर की मानिंद जल रही थी। हड्डियों का बालन था और क्रोध अगन में घी का काम कर रहा था। हृदय ने चीखकर उनसे कहा, ‘प्रपंच किए मैंने जो आपने थे करवाए। गीत मैंने थे गाये जो आपने थे गवाये। जो आपने रचा, वही था हृदय बसा। चौरासी लाख नाटक खेले, पटकथा आपकी थी। कहानी आपकी थी। लेखनआपका था। निर्देशन आपका था। मैंने वही अभिनय किया जो आपने करवाया।’
क्रोध हताशा में परिवर्तित होने लगा। देह ठंडी पड़ने लगी। दोनों भुजाएँ, जो क्रोध में ऊपर तन गई थीं, निराशा का भाव लिए नीचे लटक गईं। उनके अंगवस्त्र का कोना पकड़ हौले से पूछा, ”क्या आपको मेरा कोई भी नाटक अच्छा लगा?“ स्मित हास्य से उनकी दंत-पंक्तियाँ दिखने लगीं। हृदय में थोड़ी आस का वास हुआ। उनके अंगवस्त्र का कुछ और हिस्सा पकड़ लिया। स्वर में विश्वास की झलक थी, आँखों में उम्मीद की चमक थी, शिराओं में आश्वस्त कम्पन था। उनसे कहा, ”अगर आपको कोई भी नाटक अच्छा लगा हो, कोई भी अभिनय पसंद आया हो, तो हे प्रिय! पारितोषिक स्वरूप अपने-आपको मुझे दे दीजिए। अगर मुझे भूमिकाएँ निभानी ही नहीं आईं, तो इन चौरासी लाख नाटकों के मंचन से अलग कर दीजिए।“
सात कोठड़ियों के द्वार खुले। चिराग जला, हो सजग उन्हें देखा, वह पास नहीं आते, हल्ला मचवाते, पुकार लगवाते, बदन उमेठे हैं। जिनके नाम का ही ताना-बाना, पल-पल जिनकी शरण विलोकंू वह देव ऐंठे हैं। नाटकों में घूमती रही, सींखचों से तकती रही, सोचती रही मेरे इष्ट मेरे पास बैठे हैं। यह जो ताकना है, सींखचों के उस पार से, बस ताकना ही है। क्योंकि वह पास है, पर भीतर समाया नहीं है। परिधि पर ठहराव हो गया है। अक्षुण प्रेम का आभास त्वचा से गहरे न उतर पाया। उतरता भी कैसे श्यामल घन बरसे हैं, घर की छत भीगी है, अभी बूंदों को गहरे उतरना है, सात कोठड़ियों में झरना है।यह झरना तभी संभव है, जब इधर-उधर से बटोरा हुआ बिखर जाए, जोड़ा हुआ टूट जाए, प्रयत्नपूर्वक भरी हुई तिजोरी खाली हो जाए। बहे हुए घटजल में जब सब बिंब बह जाएँ, सब तर्क गल जाएँ, हस्ती पिघल-पिघल कर तभी अपने मौलिक स्वरूप में आए। मौलिकता में ही वह उद्भासित है, प्रगट है। ताले की यही चाबी है।
अंधेरों को बाँधा जा सकता है। पालतु बनाया जा सकता है। धूप को कौन कैद कर पाया? जो सत्य है, सुन्दर है, शिव है, वह मुक्त है। जब संकल्पों-विकल्पों से क्षोभित मन-नारियल टूट जाए, वासनाओं की चढ़ जाए बलि, अहम्-चन्दन घिस जाए, विचार-कारा के द्वार भेद दिए जाएँ, तब इन्हीं सब काराद्वारों के भीतर से झरता है -उसका झीना उजास। जो कोटि-कोटि सूर्यसम तेजोमय है, उसके तेज़ से प्रकाशित हो पाऊँ, उतनी सामर्थ्य नहीं है, नाही उतनी सीढ़ियाँ चढ़ी हैं, न ही कोई छलांग लगाई है, कोई ‘क्वांटमलीप’ भी नहीं घटी है। पर ऐसा भी नहीं है कि उसकी कृपा के झरने से बूँद भी न मिली हो। मन-उपवन ने उसका केसरिया गीलापन महसूस किया है।
कभी लगा है कि झरने के जल-कण में उसने मुख धोया है। जब नयनों में दुःख की बदरी का रंग गहरा हुआ, तो उसने खुशियों का पहरा बिठा दिया। जो आँसू बाहर न बह सके, भीतर छलके, तो उसकी तरल-कहानी बन गए। उसने इंतज़ार के पुष्प को नैनों ने बहुत सींचा है, वह कुम्हलाया, मुरझाया, मिलन की आशा हारी बहुत बार, पर हार कर भी न हारी, हर जन्म में, हर कालखंड में पुनरुज्जीवित हो उठी, नए प्राण पड़ गए। अटल विश्वास संग हर फूल चुनती रही, अपने प्रेय चरणों के लिए आँखों में प्रतीक्षा भर ली, पथ में ध्येय धर लिए, बस उसके नयनों का तनिक-सा संकेत चाहिए-
जो तुम बनो सपना, मैं नैन बन जाऊँ
जो तुम बनो चंदा, मैं रैन बन जाऊँ
भ्रमर बन गूँजो, तो मैं बसंत बन जाऊँ
मिलने का करो वादा, मैं जीवन अनन्त बन जाऊँ
जो हवन की ज्वाला बनो, बन अगरू जल जाऊँ
जो तुम चलो साथ, मैं मर उसी पल जाऊँ
मेरी विचित्र स्थिति है, दहलीज़ पर है। जो छूट गया सो छूट गया।
अधखुले द्वार से झाँकते उसके झीने उजास से नहा गई। अब संसार की चकाचौंध नहीं सुहाती। संसार से तृप्त आत्मा अन्दर गहराई में निरन्तर अतृप्त है। माना कि अतृप्त हूँ, हो जाऊँगी तृप्त – अगर साहस करूँ। माना कि दहलीज पर हँू, लगा लूंगी छलांग – अगर साहस करूँ।
माना कि मैं तटस्थ हूँ, किनारे बैठी हूँ, पर इतनी कमज़ोर भी नहीं कि पतवार न उठा सकूँ। कान इतने भी बहरे नहीं कि परमात्मा की हैया-हो, हैया-हो का गान न सुन सकूँ। पहचान लूंगी उसे अगर साहस करूँ, चेतना के रूप को जान
लूंगी अगर साहस करूँ। जिन अणुओं, परमाणुओं, तारकों से ज़िन्दगी बुनी है, उस ज़िन्दगी की अगम गहराइयों में उतर ही जाऊँगी – अगर साहस करूँ। निंदियाये अम्बर से अंसुआये-से बदरा देख मेरा आतुर साहस बूँद-बूँद बरस जाएगा। झर जाएगा।
जानती हूँ , बूँद आई है तो खोल देने हैं अपने प्राण, घनघोर घटाओं के लिए, मेघों के लिए। खबर आ गई है। बूँद के बुलावे पर जब निकल ही पड़ी हूँ, विद्युत के नवल साज पर, मेघों का सांवल रूप, छमाछम बरसती बरखा की आभा अनूप में भीग ही जाऊँगी।
जब झीना उजास दिखा है तो महासूर्यों का प्रकाश भी भीतर फैलेगा। मधुमय किरणों के सागर में गगरी फूट जाएगी। झर जाऊँगी। ज्यों जुही के फूल झर जाएँ बेल से।
मन-मोती चुगने को हंस ने चोंच आगे बढ़ाई है। भूखे भिखारी कीे फकत भूख को मिटाने उसकी ओर से सुगंध आई है। पिंजरे में पंछी के पंखों की चुहचुहाहट में उसने अपनी धुन मिलाई है। यह जो इछुड़ने-बिछुड़ने का क्रम निर्बाध-अनवरत चल रहा था, उसमें अड़चन लगाई है। जिस दहलीज़ पे सब विसर्जित हो गया, उस पर झीने उजास की किरणें फैलाई हैं,
यह उसके संकेतों की है लालिमा
जिसने हर ली दृगों की कालिमा
ऊर्जा भर गई पगों में
नप गई राह डगों में
मरू जलमग्न हुए, तैरे सात समन्दर
दृगों में नहीं प्रतीक्षा, झीना उजास भरा अन्दर
जो तुम बनो सपना, मैं नैन बन जाऊँ
जो तुम बनो चंदा, मैं रैन बन जाऊँ
भ्रमर बन गूँजो, तो मैं बसन्त बन जाऊँ
जो तुम चलो साथ, मैं मर उसी पल जाऊँ
मृग-शावक से अब तक पड़े थे
इस संसार-अरण्य में प्राण
बिन पदचाप अतिथि बन आए
देने को रसमय मधुर गान
ज्ञात से मुक्ति के क्षणों में
बन जाते अपरिचित विहान
पृष्ठ सं 90
किनारे तोड़ कर बही
बुद्धि छोड़ कर बही
लावा-सा अन्दर दहका
शिराओं में आग-सा महका
भारहीन हुई, जब हुआ सामना
जब से प्रभु भए पावना
पृष्ठ सं 98
वाइब्ज़ (2013)
पंच महातत्त्व में से एक ‘अग्नि’-तत्त्व को समर्पित इस काव्य-संग्रह में कुमुद रामानंद बंसल द्वारा प्रणीत 88 अंग्रेज़ी-कविताएँ संगृहीत हैं, जो क्रमशः तीन खण्डों – ‘कॅन्सर्न’ (38), ‘वाइब्ज़’ (30) और ‘जर्नी टु इटर्निटी (20) – में विभक्त हैं। कहना न होगा कि यहाँ भी कवयित्री की पूर्व-परिचित रचना-मानसिकता का ही रूपायन हुआ है। इसीलिए यहाँ संकलित कविताएँ भी सजीव-निर्जीव प्रकृति, विभिन्न विश्वासों-स्मृतियों और ससीम-असीम सम्बन्धो ं की द्योतक बनकर सामने आयी हैं। प्रस्तुत काव्य-संग्रह का प्राक्कथन प्रख्यात हिन्दी-अंग्रेज़ी साहित्यकार पद्मश्री श्यामसिंह ‘शशि’ ने लिखा है, जिसमें उन्होंने, सत्यं-शिवं-सुन्दरं के आलोक में, कवयित्री की सात्विक अनुभूतियों की गहराई, समृद्ध कल्पना-शक्ति और भाषा-शैली आदि की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। भूि मका म ं े कवयित्री कहती ह ैं –
श्व्दम बंद सववा ंज सपमि मपजीमत ंे ं बवउचसमग ूमइ वि जतवनइसपदह ीनउंद तमसंजपवदेीपचे वत ंे ं बीववस जव समंतद ंदक उवअम नचूंतकेण् स्पमि उंल दवज इम ंद मंेल ेंपसपदह ेीपचए इनज मंबी पबमइमतह बंद इम नेमक ंे ंद वचचवतजनदपजल जव ेंपस जव लमज नदमगचसवतमक ेीवतमेण्म्अ मतल ेवनस ूीमजीमत व िं इतपबाए चसंदज वत ीनउंद इमपदह बंद हमज वनज व िजीम जतंच व िइपतजी ंदक कमंजीण्ज्ी पे बवससमबजपवद ींे इममद कपअपकमक पदजव जीतमम ेमबजपवदेरू. श्ब्वदबमतदश्ए श्टपइमेश् ंदक श्श्रवनतदमल जव म्जमतदपजलश्ण् ज्ीम जीमउम व िमंबीे मबजपवद पे ुनपजम कपििमतमदज तिवउ जीम वजीमतण् ।दक लमज ंज ं कममचमत समअमसवदम ूपसस मिमस ेपउपसंत अपइतंजपवदे मउंदंजपदह तिवउ मंबी चवमउण् ज्ीमेम
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थ्वत दव उवतम ंे पद उवनदजंपदेण्
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च्ंहम छवण्64
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ठतपदहे कवूद ीपे सिवबो इमवितम दपहीज सिंामेए
थ्वत ीपे ीनदहमतए जीम जमदकमतमेज बवबा ीम जंामेण्
ज्ूव ेमज व िबसवजीमे – इववजे वित मिमजए
ॅपमिए ापकेए पितमूववतक – तपबम जव मंजए
डंाम ीपउ बीममतनिसए तपबी – बवउचसमजमण्
च्ंहम छवण्82
ज्ीम ठपतक क्ंदबम
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प्ज जनतदमक ंदक जूपेजमकए समंचज ंदक ूमचजण्
ठनज ंसंे! ंसस पद अंपदण्
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ज्ीम चपहमवद पे कंदबपदह ूपजी कमसपहीजश्ण्
ज्ीम मंहसम बवनसक दवज मिमस जीम चंपद
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च्ंहम छवण्24
बरगद की जड ं े ़ (2013)
पंच महातत्त्व में से ‘पृथ्वी’-तत्त्व को समर्पित इस गद्यकाव्य-संग्रह में कवयित्री की 171 गद्य-कविताएँ संगृहीत हैं, जिनमें प्रकृति, दर्शन, अध्यात्म, वर्त्तमान सामाजिक परिवेश और मानव-जीवन विषयक चिन्तन कूट-कूटकर भरा हुआ है। जैसे वटवृक्ष की जड़ों का कोई वारापार नहीं होता, उसी प्रकार, यहाँ भी, कवयित्री की मधु-कटु और विविधरंगी अनुभूतियों की कोई गणना-सीमा नहीं है। एक-एक गद्यकाव्यांश अपने-आप में भरा-पूरा है, बहुआयामी है और सोच के अनेकानेक धरातल प्रदान करता है। भूमिका में कवयित्री कहती हैं –
“प्रत्येक व्यक्ति अपने-आप में सम्पूर्ण मानव-जाति का इतिहास है। युगों-युगों की कहानी अंकित है उसके गुणसूत्रों में। अपने कक्ष में रखे टेलीविज़न में विद्युत-प्रवाह संचालित कर, मनचाहे चैनल के लिए बटन दबाकर उचित संरखन होते ही आप इच्छित कार्यक्रम देख सकते हैं। यथावत्, अपने गुणसूत्रों में सदियों-सदियों से छिपे शाश्वत ज्ञान से कोई भी अपना संरेखन कर
सकता है। मैंने भी ऐसा ही किया। पाया कि जीवन बरगद वृक्ष के समान है। हज़ारों बड़-बंटियाँ लगती हैं। हर बड़-बंटी में सैकड़ों बरगद हैं। बरगद की शाखाओं से लटकती जड़ों का सौंदर्य अनुपम है। धरती का स्पर्श पा इन्हीं जड़ों
का निज अस्तित्व बना लेना भी विलक्षण है।
प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में उतार-चढ़ाव आते हैं। दृश्यमान जगत्स बके लिए एक जैसा ही है। चूंकि पृष्ठभूमि व्यक्तिगत होती है, अतः दृष्टिकोण भिन्न-भिन्न होता है। अनुभव, अन्तश्चेतना व बाह्य स्थिति सापेक्ष होते हैं। सापेक्षता के निकलते ही अनुभव में सार्वभौम बन जाने का गुण होता है।
शरद पूर्णिमा की रात्रि थी। एक पनिहारी ने कुएँ से घड़ा भरा। घटजल में शरदेन्दु देखा। मुस्कराई और लौट चली घर को। कंकड़ पग में चुभते ही पग फिसल गया। घड़ा नीचे गिरते ही टूट गया। चौंककर खड़ी हुई। बहते घट-जल में चाँद भी बह गया था। नाचने लगी, गुनगुनाने लगी। सम्यक्स माधि जो लग गई थी, जान लिया था कि जगत् प्रतिबिंब से ज्यादा कुछ नहीं। पानी में प्रतिबिंब है। पनिहारी की तरह सभी के पैर फिसलते हैं, घटनाएँ घटती हैं, किन्तु सभी की समाधि नहीं लगती। उसकी लगी, हमारी क्यों नहीं लगती? पनिहारी के मानस ने अवश्य ही कोई प्रतिक्रिया नहीं की होगी। वह रही होगी कोरी-की-कोरी। इसी कोरेपन में उसने बह गए घटजल में बह गया चाँद देखा।
वैज्ञानिक अक्सर कैटेलिटिक एजेंट की बात करते हैं। उनका कहना है कि कुछ तत्त्व होते हैं, जो किन्हीं घटनाओं के घटने में कोई सक्रिय सहयोग नहीं करतेय किन्तु जिनके न होने से घटना घट भी नहीं सकती। घटजल के बह जाने ने कैटेलिटिक एजेंट का काम किया। पनिहारी को भूला सत्य याद आ गया। उसे भूली-बिसरी अपनी संभावनाएँ स्मरण हो आईं। पानी क्या बहा
सत्य के झरने फूट गए। जैसे साँप अपनी केंचुली छोड़कर आगे निकल जाता है, पनिहारी ने भी असत्य की केंचुली त्याग दी। रूपांतरण हो गया।
ऐसे ही कैटेलिटिक एजेंट्स से हम घिरे हुए हैं। किन्तु हमने अपनीचमड़ी को इतना मोटा कर लिया है कि बाहर का बाहर रह जाता है और भीतर का भीतर। माटी की सोंधी सुगंध भीतर नहीं उतरती। बाहर खिली जुही अन्दर नहीं झरती। भीतर की किरणें बाहर आलोक नहीं फैलातीं। बाहर जो घटता है वह भौतिक है, भीतर जो घटता है वह है अभौतिक। हर भौतिक में
अभौतिक का रहस्य छिपा है।
जहाँ तक भौतिक पुष्प की बात है, जड़ों के बिना कोई संभावना नहीं। लेकिन बुद्ध हो जाना, तथागत हो जाना तो आकाश-कुसुम है। यह अदृश्य फूल जड़ों से नहीं जुड़ा। ‘बरगद की जडं़े’ में तथागत हो जाने का कोई नुस्खा नहीं है। जब भी इसके कुछ वाक्य लिखे, तो ऐसे लगा कि जैसे अंधेरे में कोई किरण उतर आई। किरण अंधेरे में है, किन्तु अंधेरे का अंश नहीं हैं, अंश तो सूरज का है; पर उतरी अंधेरे में है। ज्ञात अतीत से है किन्तु अतीत का अंश नहीं है।
मैंने भी यही चाहा है कि बरगद की जड़ें पकड़ कर पाठक आकाश कुसुम-सा हो जाए। ये जड़ें पाठक के लिए सीढ़ियों का काम करें; कैटेलिटिक एजेंट बन जाएँ। साधन साध्य तक पहुँचने के लिए हैं। साधन साध्य नहीं है। साध्य बहुत विराट है, विभु है, व्यापक है।
आओ कुछ भीतर उतर जाएँ। कुछ अभौतिक हो जाएँ। अकर्मण्य से निष्काम हो जाएँ।” कुछ गद्यगीत
बादल घिरे हों या खिली हो धूप,
हर सुबह लगती उम्मीद का ही रूप।
एक नई आस, एक नई सुवास लिए,
कोहरे में छिपे विश्वास का आभास लिए।
पृष्ठ सं 25
हमारा आंतरिक मौन ही नई समझ का बनता है धरातल,
वाचालता पहुँचाती बाधा पल-पल।
पृष्ठ सं 74
काल-चक्र, कर्मों का प्रवाह,
कभी-कभी अपनी पकड़ में लगता है मन।
किंतु फिर ऐसे फिसल जाते हैं
जैसे चिकने घट से जलकण।
पृष्ठ सं 73
अनुभतू लहरं े (2013)
पंचमहातत्त्व में से ‘जल’ तत्त्व को समर्पित इस काव्य-संग्रह में 97 कविताएँ संगृहीत हैं, जिन्हें कवयित्री ने तीन उपशीर्षकों – ‘लौकिक अनुभूति’ (58), ‘अलौकिक अनुभूति’ (15), ‘क्षणिकाएँ’ (24) – में संजोया है । ये सूक्ष्मदर्शी, मर्मस्पर्शी और इन्द्रधनुषी कविता-लहरें कवयित्री के ही जीवन-सागर से निकली हैं। बकौल कवयित्री –
“मुहूर्त ज्वलितं श्रेयः, न तु धूमायितं चिरम्। कितना अद्भुत है यह महाभारत का सूत्र। कहता है ‘मुहूर्त भर जलना श्रेयस्कर है, बहुत समय तक धुंआते रहना नहीं। यह मुहूर्त-भर जलना ऐसा है, मानो असली अनुभूति हो जाए। वह नहीं जो इन्द्रियों में उपजी हो, बल्कि वह अनुभूति जो इनकी पकड़ के पार हो।
भव-सागर में कुछ पानी की लहरें उठती-गिरती रहती हैं। क्या है यह उठना-गिरना? अक्सर यही देखा जाता है कि मीठे जल-स्रोत के मुहाने पर बैठे लोग भी प्यासे-के-प्यासे। एक बूँद की अनुभूति, एक लहर तक भी अन्दर तक नहीं उतर पाती। दुनियाभर में खोजते हैं, दौड़ते-फिरते हैं। व्यर्थ ही आपाधापी कर लेते हैं – उस लहर की अनुभूति के लिए, जिसके सागर अन्दर
ही समाए हैं। एक जलकण भी भीतर गहरे उतर जाए, तो शाश्वतता मिल जाए लहरों की तो बात ही क्या है। जीवन-सागर की तलहटी में अनेकानेक अनुभव छिपे होते हैं। ये अनुभव उपजते हैं सुख-दुःख, हर्ष-अवसाद, मान-अपमान, सरोकार, संवेदनाओं
तथा संवेग इत्यादि से। इन्हीं की लहरें कविता बन छू लेना चाहती हैं अभिव्यक्ति-तट को।
इस काव्य-संग्रह में जो अनुभत लहरें हैं वे मेरे ही जीवन-सागर से निकली हैं और आपने भी किसी-न-किसी कालखंड में इन लहरों को अवश्य महसूस किया होगा। इनमें आपको अपने मानस के किसी कोने का प्रतिबिम्ब मिलेगा या मिलेगा स्थापित प्रतिबिंबों को अनुभव करने का नया दृष्टिकोण। जीवन सागर में लहरें तभी उठती है, जब यथार्थ व व्यक्ति की
अपेक्षाओं या सपनों में फासला होता है। इसी फासले को सकारात्मक ढंग से पूरा करने की चेष्टा ही कला के विभिन्न रूपों से अभिव्यक्त होती है। ‘अनुभूत लहरें’ भी ऐसी ही चेष्टाओं का फल है। उम्मीद है कि यह चेष्टा आपके मानस-तट को छू कर आपको भाव-विह्वल कर पाए। ‘अनुभूत लहरें’ आपकी भी अनुभूति बने, यही आकांक्षा है।“ ‘अनुभूत लहरें’ की लहरें प्रत्येक पाठक के हृदय को अवश्य ही स्पर्श करेंगी।
मर्तू -अमर्तू
अग्नि समर्पित किया मूर्त
ताकि अमूर्त प्रकट हो
छिन्न-भिन्न किया आकार
ताकि निराकार उपलब्ध हो
नदिया को बहने दिया
ताकि सागर में समाप्त हो
सागर की लहरों ने दिखाया
लहरों ने ही यह सिखाया
क्या रखा है अरूप में
झंझट निराकार को छोड़
सांवला रूप बसा ले मन में
कृष्ण से प्रीत जोड़
पृष्ठ सं 92
बुद्धत्व
निकल पड़ा था सिद्धार्थ
सत्य की तलाश में
छोड़ दिए थे महल
बुद्धत्व की आस में
पर तुम्हारे और मेरे लिए
कौन से महल हैं छोड़ने के लिए
कौन-सी है सुविधा
त्यागने के लिए
पृष्ठ सं 21
विश्वास
रे सूरज, न झाँक मेरी आँखों में,
तू जल जाएगा
हौसला पलता है इन आँखों में
तपिश से तू पिघल जाएगा
ओढ़ ले बादलों का घूँघट
तेरा संकट टल जाएगा
पृष्ठ सं 48
ताडे ़ा े जंजीर ं े (2014)
‘तोड़ो जंजीरें’ मंे हाइकु-अनुभव में भागीदार कुमुद द्वारा प्रणीत 168 हाइकु संगृहीत हैं, जो चार खण्डों – ‘तोड़ो जंजीरें’ (56), ‘सत्य-असत्य’ (32), ‘भाववीर’ (16), ‘समर्पण’ (64) – में विभक्त हैं। ये चारों शीर्षक इस तथ्य के स्पष्ट प्रमाण हैं कि प्रस्तुत हाइकु-संग्रह भौतिकता से आध्यात्मिकता की ओर प्रयाण का एक सत्प्रयास है, जागतिक बन्धनों से मुक्त होकर प्रभु-भक्ति मंे लीन होने की आकांक्षा है। बकौल कवयित्री –
”जब पहली बार मैंने हाइकु का नाम सुना, तो मन कहने लगा ‘महाकाव्यों की इस पुण्य शस्य-श्यामला धरा पर सतरह वर्णाें की, तीन पंक्तियों की कविता का क्या काम। मेरा मस्तिष्क छलाँग लगा, बीच में खड़ा होकर बोला, ‘ठीक है महाकाव्यों की धरा है, पर मत भूलो कि इसी धरा पर ‘पँचाक्षरी मन्त्र’ रूपी कविता ने जन्म लिया। इसी धरा पर जन्में ऋषि-मुनियों ने बीज-मन्त्र दिये हैं।’ एक अक्षर वाले एक-एक मन्त्र में महाकाव्य का जनक बनने की क्षमता है।’ मन कैसे हार मान लेता, बोला – ”हाँ, हाँ ! वह तो ठीक है किन्तु हाइकु की संरचनात्मक मौलिक शैली है। अगर वर्ण, सरंचना, विषय-वस्तु का उल्लंघन किया जाए, तो वह हाइकु के अलावा कुछ भी हो सकता है।“
अपने मन से मैंने कहा – ”तुम मन हो या गुब्बारा, जो हरदम फूटने पर आमादा रहते हो।“ मन आखिर मेरा ही मन तो था। उसे समझाया-बुझाया। हम दोनों हाइकु-अनुभव में भागीदार बन गए।
जंजीरें मात्र भौतिक नहीं होतीं। इनसे कहीं-अधिक मजबूत पकड़ होती है उन जंजीरों की, जो हमारी सोच, विचार और मानस को जकड़े रहती हैं। इनकी कारा से छूटकर न केवल नवविहान की प्रतीक्षा होती है वरन् नवविहान के नवप्रकाश
में नये पथ का सृजन होता है। पथ बदल जाते हैं। दृष्टि बदल जाती है। चलने के ढंग बदल जाते हैं। जो नहीं बदलता वह है, धरातल और लक्ष्य। जकड़ा जीवन जीने का ऐसा अभ्यास पड़ जाता है कि जकड़न सुखद लगने लगती है। हमारा मूल
स्वभाव जकड़न-विरोधी है। वह क्षणों में पल्लवित होता है। पुष्पित और सुरभित हो जीवंत बनता है।
अपनी निजी डायरी के विभिन्न पृष्ठों पर बंधनों को, सीमाओं को तोड़ने की चाह, सत्य की ललक तथा श्रीचरणों में हृदय-समर्पण की उमंग की बूंदें सिमटी पड़ी थीं। चूँकि मेरी ओर मेरे मन की भागीदारी सुनिश्चित हो चुकी थी, अतः अनुभवों को हाइकु के संरचनात्मक सांचे में ढालने का कार्य प्रारंभ हुआ। कुछ अनुभव डायरी के पन्नों में वर्षों से अपना अड्डा जमाए बैठे थे। वे मठाधीश बने वहीं पड़े रहे। जो अनुभव तटों की सीमा स्वीकार करने को राज़ी हो गए, वे जंजीरें तोड़ सागर में मिल गए।
हाइकु के प्रारंम्भिक दौर में जापान में ऋतु-शब्दों द्वारा प्रकृति का चित्रण ही इसकी आत्मा माना जाता था। समय ने जब अनेक करवटें लीं, तब प्रकृति-चित्रण में मानवीय-मन भी समा गया। मेरा यह मानना है कि जब तक मन की चाल न समझ ली जाए, तब तक प्रकृति-चित्रण न तो किया जा सकता है और न समझा जा सकता है। इसीलिए ‘तोड़ो जंजीरें’ मन की गहराइयो ं में गोते हैं।
मानव-मन के अनेक आयाम हैं। इन आयामों के अनेक स्तर हैं। इनमें गहरी सँकरी गलियाँ हैं, तो अनेक आलोकित पथ भी है । हमें अपने स्थूल व सूक्ष्मबंधनों को चिन्हित कर उन्हें समझना होता है। इसी समझ से बंधन स्वयमेव कट जाते हैं, पिघल जाते हैं। इस कटाव या पिघलाव के उपरांत जो घटित होता है, वह नितांत व्यक्तिगत है। जो साँझा किये जा सकते हैं, हम करते हैं, कुछ
आभास-मात्र हैं।
मेरे मन की और मेरे अनुभव-स्तर पर शहद-सुमधुर, दुरूह व दुर्गम मांगों से गुज़रती प्रियकर रसभीनी जो यात्रा हुई, उसी का परिणाम है ‘तोड़ो जंजीरें’। हाइकु-क्षणों ने मुझे और मेरे मन को एक कर दिया। पाठक भी अपने मनोमस्तिष्क को भागीदार बनाकर हाइकु-अनुभव यात्रा पर निकलें। ऐसे क्षण आएंगे, जब बस वह हाइकु-क्षण होगा, शेष कुछ नहीं। सुधि-पाठक शब्दों के आवरण के पीछे गहराई में झाँक पाएंगे – ऐसा मेरा विश्वास है।“
इसी पुस्तक से कुछ हाइकु प्रस्तुत हैं –
पिंजरा तोड़ बीज गलता
पंख फड़फड़ाये, मृत्यु पथ बनाती
मुक्त चिरैया…… प्राण पलता
पृष्ठ सं 21 पृष्ठ सं 27
करम-छाज सत्य श्रीखंड
छाजता दिनोंदिन जिसने भी है चखा
जीव-अनाज मस्ती अखंड
पृष्ठ सं 41 पृष्ठ सं 68
58
पहुँचा मन मन की नाव
दूर क्षितिज तक, जगत् नदी बह
है समर्पण……….. मिलती सिन्धु…….
पृष्ठ सं 87 पृष्ठ सं 90
‘वो’ ऐसे मिला मैं रही नहीं
शतदल कमल बस वही है वही
भीतर खिला….. नदी बही………..
पृष्ठ सं 95 पृष्ठ सं 103
स्मृति-मंजरी (2014)
‘स्मृति-मंजरी’ में सुगन्ध-मंजरित कुमुद द्वारा रचित 178 हाइकु संगृहीत हैं, जिन्हें दो खण्डों – ‘स्मृति-ऊर्मियाँ (96) और ‘सचराचर’ (82)-में विभक्त किया गया है। संग्रह-शीर्षक के ही अनुरूप इस कृति में स्मृतियाँ-ही-स्मृतियाँ सजायी गई हैं, जो खट्टी कम हैं, मीठी अधिक। बाचपनिक, किशोरकालीन, प्रकृति-प्रांगण विषयक, पर्यावरण और चर-अचर सम्बन्धी प्रत्येक स्मृति, मेरे खयाल से, प्रत्येक पाठक की अपनी स्मृति-आभासित होती हैं। कवयित्री की यह सोच भी का़बिल-ए-ग़ौर है –
“इन्सान जब-जब समस्याओं से घिरता है, तो बचपन की यादों का तकिया लगा विश्राम करने लगता है। घर-आँगन की माटी की सोन्धी सुगन्ध उसे कर देती है। खुशी के पलों में उसके गीतों को संगीत स्मृति-उर्मियाँ ही देती हैं।
वर्तमान के झरोखे से जब 40-50 वर्ष पूर्व अतीत की पुस्तक को पढ़ती हूँ, तो हर पलटता पन्ना रोमाँचकारी छवि को उकेरता है। कई दिन बीत जाते हैं अगला पन्ना पलटने में। चूल्हे की पकी दाल व अंगारों पर सिकी रोटियों ने यादों में अपना घरौंदा बनाया हुआ है। माँ के हाथ के बुने स्वेटरों की गरमाहट अब भी सर्दी से बचाती है। उस कालखंड में हम अपनों के व प्रकृति के बहुत करीब थे।
टकराव नहीं, बल्कि आदान-प्रदान हुआ करता था। काल का पहिया ऐसा घूमा कि हम प्रकृति से दूर हुये सो हुये, खुद से और अपनों से भी सम्पर्क तोड़ बैठे। कम्प्यूटर ने वैश्विक स्तर पर हमें जोड़ा, किन्तु अपने परिवेश से तोड़ा। अपनी सहचर प्रकृति को अनुचरी बनाकर हम विजयी व गर्वित महसूस करते हैं। वह चुप नही बैठी रही। लाल झंडा उठा के विद्रोह कर दिया। अगर फिर से हम सहचर न बने, तो प्रकृति का दंश झेलते रहना होगा।
सोच आधुनिक हो, किन्तु रहन-सहन व खान-पान का ढ़ंग अपनी ज़मीन से जुड़ा होना चाहिए। हमें खुद से जुड़ना होगा, परिवार से जुड़ना होगा, परिवेश से जुड़ना होगा। अगर ऐसा नही होता, तो सृष्टि के अन्त हेतु किसी नाभकीय विस्फोट की आवश्यकता नहीं है। यह धीमा विष ही पर्याप्त है।
जड़-जंगम, चेतन-अवचेतन, स्मृति-उर्मियाँ सब हमारे हिस्से हैं। साधु-महात्मा कहते हैं कि वर्तमान में जियो, पर सच यह है कि अतीत के कन्धों पर खड़ा वर्तमान अस्तित्व के झरोखे से भविष्य में झाँकता रहता है। बस हमें यह देखना है कि समय की तेज़ रफ्तार में ज़िन्दगी का दामन छूट न जाए।
हम सभी के पास निज स्मृति-मंजरियों की लुभावनी, भीनी-भीनी सुगंध होती है। इन स्मृति-मंजरियों से ऊर्जावान भी हो सकते हैं और हताशा के बादल भी बरस सकते हैं। घोर निराशा से सनी यादें भी उजाले के संकेत दे सकती हैं। जब हम में सचराचर से जुड़ने का सामर्थ्य आ जाता है, तभी हम खुदी के कुएँ से निकल विशाल समुद्र बन जाते हैं।
स्मृति-मंजरियों का सृजन तब हुआ, जब वर्तमान में यादों के कंकड़ गिरते ही शान्त से दरिया में लहरें उठने लगीं, हिलोरें लेने लगी। अतीत के बीज अंकुरित हो हरियाली के साथ लहलहाने लगे। बयार में स्मृतियों की सुगंध रची-बसी थी। यही बयार साँस-साँस में भर भीतर तक उतरती चली गई। सर्द मौसम में अलाव तापने से जो गरमाहट महसूस होती है, वही हो रही थी। गरमी से तपते हुए तन को शीतल छाँव में जो सुख मिलता है, वही मिल रहा था। मैं किसी की वाह-वाह के लिए नहीं लिखती और न शायद लिख पाऊँगी। यह तो यादों का सैलाब था, जो अपनी मर्ज़ी से आया और मौज में भिगो गया। यादों के दर्द व आनन्द के किस्से बार-बार न सुनाए जाते हैं, न लिखे जाते हैं। जी लिया पलों को, भीग गई मौज में, ले ली सुगंध मंजरी की, क्योंकि, कौन जाने कब उम्र बीत जाये। सुधि पाठकों से इन्हीं स्मृति-मंजरियों को साँझा किया है। सुधि पाठक जब ‘स्मृति-मंजरी’ को पढ़ेंगे, तब पायेंगे कि अनेक मंजरियाँ उनकी अपनी हैं। आ सुगंध ले लें स्मृति-मंजरियों की, एक हो जायें सचराचर से।“
इसी पुस्तक से स्मृतियों के अनेक आयाम खोलते हाइकु –
खोली जो मैंने, है स्मृति वन,
बचपन की पेटी, उपवन-आँगन,
मिली दौलतें……. मादक मन………
पृष्ठ सं 15 पृष्ठ सं 38
सूने चौपाल खोई है टेर,
नहीं दिखाई देते कबड्डी-कबड्डी की,
ग्वालों के बाल……. सूने मैदान………….
पृष्ठ सं 45 पृष्ठ सं 52
भरा अँजुरी, पीछे छूटता,
शीतल झोंका हवा, अबोध बचपन,
स्मृति-मंजरी…….. मृग छौने-सा……
पृष्ठ सं 57 पृष्ठ सं 58
नीम के तले यादों में गोता
हुक्का गुड़गुड़ाते विशाल नीम मिला
बुजुर्ग मिले……….. नीन्दों में सोता……
पृष्ठ सं 59 पृष्ठ सं 59
हम बने हैं, सूर्योदय की,
पर्यावरण हन्ता, देदीप्यमान छवि,
वो बना काल………. तम का अंत………
पृष्ठ सं 70 पृष्ठ सं 78
माँगता विदा, जलधि में है,
ढलता पीत भानु, तरंगों का गुंजार,
रंगीन छटा………. बाजे सितार………
पृष्ठ सं 79 पृष्ठ सं 81
सागर-गान, वन-सम्पदा
तरंग बहु तान, जब होती है नष्ट
मैं धरूँ ध्यान मिलता कष्ट………..
पृष्ठ सं 81 पृष्ठ सं 100
जीवन-कला (2014)
हर पल जीवन जीती कुमुद का ‘जीवन-कला’ एक हाइकु-संग्रह है, जिसमें, दो खण्डों – ‘समझ-रंग’ और ‘माधुर्य’ – के अन्तर्गत, 88$88 = कुल 176 हाइकु संगृहीत हैं। ग्रन्थ-शीर्षक के ही अनुरूप सारे हाइकु ‘जीवन’, ‘जीवन-कला’ और ‘जीवन-दर्शन’ से सम्बद्ध हैं । कवयित्री, स्वभावतः, सकारात्मक सोच क धनी हैं। इसीलिए, ‘जीवन-कला’ में, जीवन के प्रति, उनकी आत्मविश्वासी, आशावादी, आस्थावादी, प्रेरणास्पद, संकल्पधर्मी, ऊर्जोन्मुखी, व्यावहारिक और समस्या-समाधानपरक अवधारणा व्यक्त हुई है। उनके ही शब्दों में –
“बहुत सिर चढ़ गया है विज्ञान। हम यह मान बैठे हैं कि जो विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरे, वही सत्य, लाभदायक तथा उचित है। हताशा के क्षणों को गोलियों के सेवन से दबाया जा सकता है, किन्तु विज्ञान आत्म-विश्वास को बढ़ाने वाली दवा नहीं बना सका। वह हम में शान्तिमय सह-अस्तित्व की भावना विकसित नहीं कर सका। भौतिक सुविधाओं से सम्पन्न मानव ने जीवन के हर पक्ष के लिए भौतिक व व्यावसायिक दृष्टिकोण अपना लिया है। जीवन जीना एक कला है। इसमें पारंगत मानव जीवन-आनन्द पा सकता है। जीवन-कला का विशेषज्ञ अनेक समस्याओं व विसंगतियों का समाधान जीवन-कला की भूमिकाओं से निकाल लेता है। अणु-अणु से परिवर्तन हमें जीवन-कौशल से सुसज्जित कर देते हैं। प्रथम-द्रष्ट्या जीवन-कला पर हाइकु-संग्रह अजीब-सा लगता है। जब मेरे हृदय में यह विचार उपजा, तो मुझे भी यही लगा था। मैंने सोचा, क्या मेरा जीवन-कला पर लिखना हाइकु कहलाएगा। बेचैनी हुई। सर्च-इंजन के माध्यम से जापान के प्रतिष्ठित हाइकु-लेखकों के अनुवादित संग्रह पढ़े। अनेक लेखकों ने अपने कालखंड में जापानी सम्राटों को हाइकु के माध्यम से सुझाव दिये थे। बेचैनी समाप्त हुई। यूँ भी मैंने ठान ही लिया था कि हर कालखंड में कुछ लोग प्रयोगधर्मी हुआ करते हैं, जो स्थापित मापदंडों को खंडित न करते हुए भी कुछ नया करने की चाह रखते हैं। यही मैंने किया। मैं कोई ज्ञानी संत नहीं हूँ कि किसी के लिए जीवन-कला की निर्देशिका बना सकूँ। जीवन की चुनौतियों का सामना शस्त्र से नहीं हो सकता। चुनौतियों में सफल या असफल रहा व्यक्ति अपने अनुभव बाँट सकता है। उसी के आज़माये नुस्खे कारगर होते हैं। पगडंडियों पर चलते हुए कंटक चुग कर हटा दें, कुछ कंकड़ किनारे कर दें, तो अन्य पथिक के पंगों में ज़ख्म नहीं होते। प्रभु से सदा यही माँगा कि ऐसी सामर्थ्य दें, जो उसके दिए को मैं बुद्धि-विवेक से जी सकूँ। उसने जो दिया, भरपूर दिया। मैंने भी भरपूर जिया।
आँसुओं का नमक चखा, तो अरुणोदय की लालिमा ने आँचल में फूलों की पंखुड़ियाँ भर दीं। यही जीवन है। किसी भी एक पल से न बन्धे रहना कला है। निशा है तो उषा। उषा की निशा भी होगी। दोनों का अपना आनन्द, अपना महत्त्व है। बीज अंधियारे में संघर्ष करता है, तो कोंपलें फूटती हैं। जीवन बहते दरिया की तरह है। इसे तटों के बंधन को स्वीकार करते हुए निरन्तर आगे बढ़ना होता है। किनारे टूटे कि बाढ़ आयी। गति थमी कि दुर्गन्ध उत्पन्न हुई। ऐसे ही हैं विचित्र रंग जीवन-कला के।
जीवन जीने की कला में अह्म भूमिका माधुर्य की होती है। विष को विश्वास में बदला जा सकता है। खंजर को मंजर बनाया जा सकता है। कोई पेचीदा कीमिया नहीं है। स्नेह के पात्र में समझ का जल भर दें, तो गंगाजल बन जाता है।
पवित्र पावन माधुर्य को जीवन में सम्मिश्रित कर हर कोई जीवन का कलाकार बन सकता है। जीवन गणित या अर्थशास्त्र नहीं है, जिसके फार्मूले हों। यह कला है, जिसमें सहजता व सरलता होनी चाहिए।
सुधि पाठक कला से जीवन जी सके, जीवन-आनन्द उठा सकें, ‘जीवन-कला’ उनके जीवन को समृद्ध कर सके, यही आशा है।“ उदाहरणार्थ प्रस्तुत हैं कुछ हाइकु –
न कन्धे झुकें अश्रु की धार
जीवन के बोझ से धो देती हृदय के
न गीत रुकें……. सभी विकार……….
पृष्ठ सं 16 पृष्ठ सं 17
बन चिराग छोड़े झमेले,
मिटा दिया अंधेरा जीवन बगिया में
हुआ सवेरा………. फूलों के मेले……….
पृष्ठ सं 41 पृष्ठ सं 57
मौन-समाधि प्रेम की छैनी
पिघल गए नाद अंहकार तोड़ती
वाद-विवाद…….. मन जोड़ती…….
पृष्ठ सं 74 पृष्ठ सं 92
सम्बन्ध-सिन्धु (2014)
‘सम्बन्ध-सिन्धु’ में सम्बन्ध-सिन्धु की तैराक कुमद द्वारा रचित 171 हाइकु संगृहीत हैं, जो तीन खण्डों – ‘भूल-भुलैया’ (75), ‘अवलेह’ (40), ‘मैं भी जग’ (56)में विभक्त हैं। जैसा कि ग्रन्थ-शीर्षक से स्पष्ट है, यहाँ कवयित्री ने मानव-जीवन के पारस्परिक सम्बन्धों के सुख-दुःखात्मक पहलुओं को रूपायित किया है। बकौल कुमुद बंसल –
“‘रिश्तों का मेला’, ‘भूल-भुलैया’, ‘दृग-मिचाव’, ‘आँख-मिचौली’, ‘धूप-छाँह….. क्या रखूँ अपने इस हाइकु-संग्रह का नाम। छत पर श्वेत चादर ओढ़े, बहुत देर तक यही सोचती रही। तारे गिनती रही। एक तारा कुछ अधिक ही वाचाल था। पूछने लगा, ‘किस निश्कर्ष पर पहुँची? नामकरण हुआ कि नहीं?’ मैंने कहा, ‘पंडित बुलवाना पड़ेगा।’ तारा बोला, मैं भी ज्ञानी पंडित हूँ। तुम अपनी पुस्तक का नाम रखो ‘सम्बंध-सिन्धु’।
रिश्ते भी तो सागर समान हैं। न जाने जीवन-यान को कब कौन-सी लहर पार लगा दे, कौन सी डुबा दे। यहाँ सीपों में मोती बनते हैं, तो मगरमच्छ जीवित भी निगल जाया करते हैं। अगर प्रयास किया जाये, तो सेतु बना, लंका पर विजय भी मिल जाती है। अथाह जलधि-तट बैठे प्यासे रह गये। मन्थन करने पर सोमरस पी अमर भी हो गये।
इस ‘सम्बंध-सिन्धु’ में कुछ अनुभव अपने हैं, तो कुछ समाज में घट रही घटनाओं पर आधारित हैं। संयुक्त परिवार भारतीय समाज की न-केवल अमूल्य निधि था, वरन् व्यक्ति के मनौवैज्ञानिक विकास का एक सशक्त माध्यम भी था। इसका विघटन चिन्ता का विषय हैं – ‘सम्बंध-सिन्धु’ मे ं वास्तविकता का विवरण है। अगर वास्तविकता ज़हरीली हो, तो उसे अवलेह में परिवर्तित करना भी हमारा ही दायित्व है।
जब यह भूल-भुलैया का विष मीठा मुरब्बा, अवलेह बन जाता है, तो रिश्ते सीप बनकर बूँद को मोती बना देते हैं। मैंने भी अवलेह चखा। जिह्वा पर घुली मिठास ने समाज के विभिन्न वर्गों से जुड़ने की क्षमता को विस्तृत गहराई दी। अनेक
स्तर पर जग के पहलुओं से जुड़ी, देखा, अनुभव किया। कड़वाहट भरे अनुभव अब अवलेह बनाने की प्रक्रिया सीख सचराचर बन गये थे।
परिस्थितियाँ रूई की मरिन्द पींज देती है। तितर-बितर हो इधर-उधर उड़ते हैं, पर कोई भी पींजक दृढ़ सकारात्मक सोच को नहीं तोड़ सकता। यही सकारात्मक सोच, विष का अवलेह बना जग को जुड़ने की कला, हमारे जीवनयान को सम्बंध-सिन्धु में सहज ही तैरने देती है।
‘सम्बंन्ध-सिन्धु’ में मैंने प्रयास किया है कि हमारे आसपास घटने वाली साधारण-सी घटनाओं के प्रति हमारा ध्यान आकर्षित हो। ध्यान आकर्षित हुआ नहीं कि गुरुत्वाकर्षण समझ में आने लगता है।
सम्बन्धों का आधार ही मनुष्य को राम या रावण बनाता है। सम्बन्धों का लक्ष्य ही अर्जुन या दुर्योंधन बनाता है। दुर्योधन के माध्यम से निज अभिलाषा की पूर्ति ने धृतराष्ट्र को मानसिक रूप से अन्धा कर दिया था। मैं यह नहीं सोचती कि है कि सूखी टहनी को जल में भिगोने से वह लचीली बन जाती है। यही लचीलापन सम्बन्धों को मजबूती देता है।“
आशा है कि सम्बन्धों के इस सिंधु के पाठक को अवश्य कुछ मोती हाथ लगेंगे। ‘सम्बन्ध-सिन्धु’ से कुछ खट्टे-मीठे अनुभवों के मोती पाठकों के लिए चुने हैं-
पिंजर-पिंड, तन छिजता
पिंजियारा पींजता, विगलित से रिश्ते,
पिंजिका पर…….. मन पिसता…….
पृष्ठ सं 24 पृष्ठ सं 39
कुटुम्ब पग निज गृह में
फट गई बिवाई प्रवासी बनी ढूँढँू
करूँ सिलाई……. अपनापन…….
पृष्ठ सं 44 पृष्ठ सं 51
वार्तालाप से रिश्तों की संध्या
समाधान निकले, जुगनू-सी चमकी
दुःख पिघले…… रही दमकी…….
पृष्ठ सं 61 पृष्ठ सं 66
बनी हकीम एक दूजे का
बनाया अवलेह, सदा देता जो साथ
सम्बन्ध नीम…… वही समाज…………
पृष्ठ सं 71 पृष्ठ सं 90
ह े विहंि गनी ! (2015)
प्रकृति-प्रेमिका कुमुद द्वारा प्रणीत इस प्रथम ताँका-संग्रह में 98 ताँका सम्मिलित हैं, जिनमें लेखिका ने प्रकृति विषयक विविध भावों-रूपों और परिवेशों-
परिस्थितियों का चित्रण-निरूपण किया है। स्वयं कवयित्री के शब्दों में – ”परमात्मा और देह के बीच प्रकृति-सेतु है। लौकिक को अलौकिक से जोड़ने की कला मात्र – प्रकृति के पास है। पूर्णेन्दु की रात थी। एक पनिहारी कुएँ से घड़े में पानी भर कर लौट रही थी। अचानक काँवर टूट गई। घड़ा फूटा। जल बिखरा। बिखरे जल में सैकड़ों चन्द्रमा झिलमिलाने लगे। पनिहारी के अन्दर का नृत्य फूट पड़ा। बिखरे जल ने उसका भीतर समेट दिया। सिमटे भीतर से वह एकाकार हुई। सूखे पत्ते वृक्षों से गिरते रहते हैं। साधारण घटना है। हर कोई, हर रोज़ देखता है। पत्ता सूखा था। वृक्ष से लटका था। हवा का हल्का-सा झोंका काफी था उसे नीचे गिराने के लिए। उसे नीचे गिरना ही था। ज्यों-ज्यों पत्ता नीचे गिरने लगा, वृक्ष के नीचे बैठा लाओत्सु त्यों-त्यों भीतर उतरने लगा। उसने सोचा, देखते-देखते पत्ता गिर गया। एक दिन ऐसे ही मैं भी मर जाऊँगा। साधारण-सी प्राकृतिक घटना ने क्षण में परमबोध को उपलब्ध करवा दिया।
फूल खिला। अब कोई पूछे खिलने का क्या अर्थ है। क्यों खिलता है? क्या प्रयोजन है? बाज़ार-आधारित दुनिया में फूल की कीमत दस रुपये से लेकर हज़ार रुपये तक हो सकती है। फूल के खिलने से हृदय में आनन्द की जो तरंगे उठती हैं, वे अनमोल हैं।
छोटी-सी चिड़िया का बाज़ार में कोई खरीददार नहीं मिलेगा। उगते सूरज की मुलायम-सी गरमाहट में जब लटकती ओस की बूँदे ं गिरती हैं, चिड़िया की सुरीली गुनगुनाहट की लहरियाँ उठने लगती हैं, तो संसार के श्रेष्ठतम संगीतकार भी उसका मूल्य नहीं लगा सकते।
काली-अंधेरी रात में जब चारों ओर सन्नाटा पसर जाता है, हवा की सरसराहट भी मौन हो जाती है, खुद की साँसों का आना-जाना भी खामोशी में बदल जाता है, तब अस्तित्व शून्य से परिपूर्ण हो जाता है।
एक वृक्ष का कटना अनेक संभावनाओं का नष्ट होना है। सैकड़ों घोंसले उस पर बनते, पक्षी पलते, गीत उपजते, कोई लाओत्सु ध्यान को उपलब्ध होता। आदमी जानवर भी नहीं हो पाया, क्योंकि जानवर प्रकृति-हन्ता नहीं है। प्रकृति से जुड़ आनन्दित होने की क्षमता जैसे ही आदमी ने खोई, उस के भीतर टूटन शुरु हुई।विषाद, हताशा व निराशाजनित अनेक रुग्णताओं ने उसे घेर लिया। जब से जीवन की हर खुशी नफ़ा-नुकसान आधारित हुई, हम छत पर लेट चन्द्रमा की कलाओं को देखना भूल गए। भूल गए हैं हम गिलहरी-टिटहरी। भूल गए हैं हम बरसते बादल, गरज़ती बिजलियाँ, गर्दीले तूफ़ान।
वर्तमान युग में अधिकतर लोगांे का प्रकृति से कोई सम्पर्क ही नहीं रहा है। प्रकृति व्यर्थ का व्याकरण लगती है। चिर अवधूत निरंजना उसे अपनी प्रतिद्वंद्वी लगती है, जिसका उसे विजेता बनना है। किन्तु मेरा प्रकृति से वैसा ही नाता है, जैसे जीव का हृदय-धड़कन से होता है। पेड़ पर चढ़ती गिलहरी मन को चंचलता से भरती है। डाल-डाल फुदकती गौरय्या झूमने का कारण बन जाती है।
मेरी स्थिति उस गजराज जैसी है, जिसने सल्लकी के मीठे पत्तों को चबा लिया हो और अब लाख उपाय करने पर भी कड़वे पत्ते चबाने को राज़ी नहीं होता। जिसने प्रकृति की गोद की शान्ति चखी हो, वह सुरभित वसन्त को छोड़ सीमेन्ट के जंगल में नहीं रह सकता। ‘हे विहंगिनी’ की रचना अनुभूत क्षणों को स्वान्तःसुखाय शब्दों में उतारने के लिए तो है ही, किन्तु आज यान्त्रिक बन चुके मानव को प्रकृति के सुखद अहसास से परिचित कराने के लिए भी है। वह पत्तियों की चुटकियाँ सुन सके, ढुलमुलाती डालियों का परम आनन्द ले सके, सोयेपन को गिराके सपनों की सनसनाहट सुन सके, ऐसा मैंने प्रयास किया है। मधुमयी चान्दनी की किरणें छू जाएँ, नीलांजन मेघ बरस जाए, बेल से जुही झर जाए, ऐसा मैंने प्रयास किया है। ‘हे विहंगिनी’ की सार्थकता इसी में है कि कैसे भी हो – समझा-बुझाकर या फुसलाकर आज के मानव को प्रकृति से जोड़ दिया जाए -“प्रकृति के विभिन्न रूपों को दर्शाते अनेक हाहकु –
शाखा पे बैठे चान्दी से फूल
बतियाते परिन्दे, खिलते महकते,
गाते सुमन थे चहकते
पग घूंघरु बाँध उस ही वृक्ष पर,
नाचता उपवन। जो बूढ़ा हुआ अब…..
पृष्ठ सं 24 पृष्ठ सं 61
मैं हूँ मोहित, रात दुल्हन,
फगुनाई फसलें, चाँद बना है दूल्हा,
बौराये वृक्ष, झींगुर बीन
निंदियारे नयन उल्लू ढोल बजायें,
भिनसारे सपन तारक इठलायें।
पृष्ठ सं 66 पृष्ठ सं 80
दिवस बीता, शरदेन्दु का,
तिमिरमयी धरा, निर्झर झरनों का,
लो दीप जले, रसभीना-सा
तिमिर-हन्ते चले है महारास रचा,
अंधेरा डर मरे…….. रसमुग्धता बसा…….
पृष्ठ सं 83 पृष्ठ सं 103
झाँका भीतर (2015)
‘झाँका भीतर’ में भीतर झाँकती कुमुद द्वारा, विशुद्ध दार्शनिक-आध्यात्मिक पृष्ठभूमि पर, रचित 114 ताँका संगृहीत हैं। कवयित्री के अनुसार –
“ ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ बहुत गहरा सूत्र है। ज्यों-ज्यों गहराई में उतरो, झनझनाहट होने लगती है। यह अनुभव विस्मित करता है कि मैं ब्रह्माण्ड हूँ और अधिक आश्चर्य होता है यह महसूस करके कि सकल ब्रह्माण्ड मेरे एक अणु में छिपा है। जो ब्रह्माण्ड, वही पिण्ड। जो पिण्ड, वही ब्रह्माण्ड। फिर भी ‘वह’ छिपा-छिपा-सा है।
सुबह-सुबह स्वप्न आया कि मेरी आँखें खो गयी हैं। नींद टूटते ही आँखों को ढँूढना शुरू किया। जहाँ-तहाँ देखा। गली-कूचे तलाशे। हर आने-जाने वाले से पूछा कि कहीं देखा है मेरी आँखों को। हर कोने को झाड़-फूँक के देखा। पत्ते-पत्ते को उलट-पलट के देखा। अपने हताश चेहरे को देखने के लिए दर्पण उठाया। दर्पण देखा, तो जाना कि जिन आँखों की तलाश जारी थी, वे तो मेरे मुख पर ही थीं।
गहरी शान्ति चारों ओर बिखरी हो, तो अक्सर मन करता है कि लम्बी-लम्बी दो साँसें और-लेलो। हाइकु से ताँका तक पहुँचने का यही कमाल है, यही कला है। ताँका की इस यात्रा में अनेक पड़ाव थे। हर पड़ाव के अपने संकेत थे। ठहराव थे। अलग रस, अलग गन्ध थी। कभी-कभी मुट्ठी में था और कभी रेत की भाँति मुट्ठी से फिसल गया, कभी जल पर जल से जल लिखने-सा कठिन लगता। कभी मिट्टी पे मिट्टी लिखने-सा सहज हो जाता है। कभी वह लिखा, जो महसूस हुआ। कभी वह लिखा, जिसके होने से वो महसूस हो सकता था, या हुआ। कभी जल-प्रपात तक पहुँचने की तड़प थी, तो कभी बूँद चखने पर तृप्ति।
उस जादूगर द्वारा झुलाये गये झूले ने नभ और धरातल, दोनों का अहसास कराया। हिमजटित पर्वतशिखरों पर सूर्य-किरणों से खेली। सागरतल से मोती चुने। सांसारिक यात्रा के अन्तिम पड़ाव तक पहुँचते-पहुँचते वे अनुभव भी हुए, जो मेरे
पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक तथा शैक्षणिक परिवेश से मेल नहीं खाते थे। फलतः देखने, सोचने और समझने के भिन्न दृष्टिकोणों के जन्म हुए।
अगर मुझ से कोई पूछे कि तुम्हारी क्या स्थिति, तो मै ं कहूँगी कि ‘उस’ ने मेरे द्वार पर दस्तक दी है। मैंने ‘उस’ के लिए कपाट खोल दिये। नैनों की गहराई से झीनी-सी पारदर्शी दीवार का गिरना शेष है। दीवार है कि बस अब गिरी, तब गिरी। इस स्थिति का भी अनोखा रोमांच है, स्पन्दन है, अनुभूति है। अब कैसे बताऊँ कि ईखरस से बने गुड़ और चीनी के स्वाद में क्या भेद है। शब्दों व अर्थों की परिधियाँ बहुत संकीर्ण हैं। ऐन्द्रिक अनुभवों की अभिव्यक्ति ही कठिनाई से होती है, फिर ‘उस’ का अनुभव तो अतीन्द्रिय है। कहने-सुनने से परे। फिर भी कहते हैं, सुनते हैं। लिखते हैं और पढ़ते भी हैं।
सुनसान सन्नाटा। खामोश खामोशी। मौन भी हुआ मौन। अचानक से हुई रुनझुन। मौन मुखरित हुआ। खामोशी टूटी। सन्नाटे मे ं हुआ स्पन्दन। गूँगा कैसे बताये गुड़ का क्या स्वाद है। उसने चख लिया। नेत्रहीन ने प्रकाश की सतरंगी विविधता को जाना। उसने देख लिया। बधिर ही सुन सकता है ‘उस’ का गान। उसने सुन लिया। अणु ब्रह्माण्ड हुआ। ब्रह्माण्ड अणु में समाया। कुछ भी विपरीत नहीं है। विचारहीनता में ‘वह’ घटता, सो घटा। अनबोला सुना, अनपढ़ा लिखा, अनलिखा पढ़ा, अनबूझा बूझा, अणु में
ब्रह्माण्ड महसूस कराता है। ताँका-लेखक व ताँका-पाठक मेरी इस बात से सहमत होंगे।“
भीतर झाँकने पर चेतना के जो कपाट खुले उन्हें कवयित्री ने कुछ इस तरह ढाला है –
नखरेबाज़! माँगो स्वप्न
कहाँ कभी आते हैं दे दूँ निज नयन
बिना रिझाये। सम्पूर्ण तन
एक बार जो आये पल माँगो, युग दूँ
हरी-भरी हुई मैं। हर निज सुख दूँ।
पृष्ठ सं 33 पृष्ठ सं 41
चैतन्य ऊर्जा, ढ़ूँढा नभ में,
अग्नि-सी बह जब, ढूँढती भूतल में,
सूर्य से मिले, ढिंढोरा पीटा,
लग जाती है बस हक्की-बक्की हुई मैं,
उसी क्षण छलांग। पाया कण-कण हुई मैं।
पृष्ठ सं 43 पृष्ठ सं 71
सम्भ्रमित हैं स्वयं के प्रति,
तथाकथित ज्ञानी, चैतन्य जागरण,
नहीं जानते जीवन-गुण
ज्ञान का मिटना ही उसने यही कहा,
बने ज्ञान-प्रकाश। उसकी सुनी धुन…..
पृष्ठ सं 72 पृष्ठ सं 73
है जो भीतर, मैं रही नहीं
वही तो बाहर है, वो जुदा ही कब था,
जग बसे मुझमें सिलसिला है
मेरा ही है राज्य। बरसों से चलता
पृष्ठ सं 77 आँख-मिचौली खेल।
पृष्ठ सं 98
चिन्तन (2018)
निःसंदेह, यह बहुआयामी ‘चिन्तन’-मंजूषा लेखिका की साहित्य विषयक परिपक्व और स्वस्थ अवधारणा से लबालब है, जो युवा और प्रौढ़, दोनों वर्गों के साहित्यकारों और साहित्यप्रेमियों के लिए सार्थक है, उपयोगी है, मार्गदर्शक है और
है स्थायी महत्व-प्राप्त। कवयित्री लिखती हैं – ”अपने खेत-खलिहानों में बैठी थी। बाबा के लगवाए अमरूद के वृक्ष पुराने
हो चले थे। उनके स्थान पर नये पौधे लगवाए जा रहे थे। उद्वेलित हृदय से पुराना उखाड़ना व नये का स्थान लेना देख रही थी। मेरे जीवन में भी कुछ-कुछ ऐसा ही हो रहा था। हाँ ! एक भेद था। मेरे जीवन में पुराना यथावत् चल रहा था और नया भी अपना स्थान बना रहा था। अचानक आये परिवर्तन से मैं सुर-ताल मिलाने का प्रयास कर रही थी।
2 वर्षों तक ‘हरियाणा साहित्य अकादमी’ का मेरे जीवन के हर पहलू पर वर्चस्व रहा। मेरी हर श्वास पर वह अधिकार जमाए बैठी थी। मेरे पल-पल पर इसका कब्ज़ा था। मेरा दिल-औ-दिमाग़ इसकी कैद में था। यह वर्चस्व, यह अधिकार, यह कब्ज़ा और यह कैद सुखद-सुहानी थी। आनन्द की अनुभूति दैहिक थकान को कहीं-पीछे धकेल देती। इन 2 वर्षों में मेरा लेखन भी अकादमी के विभिन्न क्षेत्रों में ही रहा। इन्हीं सीपियों में छिपे मोतियों को एक माला में गूँथने का विचार आया। इसी का गूँथा हुआ रूप है -‘चिन्तन’।
जिला, प्रान्तीय व राष्ट्रीय स्तर पर अनेक पदों पर रहते हुए कार्य किया। ‘अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद्’ में राष्ट्रीय सचिव के रूप में कार्य करना मेरे लिए गौरव व बौद्धिक समृद्धि का कालखण्ड था। ‘हरियाणा साहित्य अकादमी’ में बतौर निदेशक कार्य करना सागर की लहरों पर नौकायान जैसा था। लहरों के उतार-चढ़ाव ही नौका को गति देते तथा मुझ जैसी यात्री को प्रसन्नता। मुझे अक्सर ऐसा भी लगता कि मैं वो पनिहारिन हूँ, जिसके सिर पर जल-घट है, सखियाँ संग हैं, एक-एक पग मंज़िल की ओर बढ़ रहा है और पथ भी कोई रेशमी फिसलपट्टी नहीं है। बड़ी कठिन है डगर पनघट की। इन्हीं कठिनाइयों से जूझने से आत्मा की प्रगति हुई तथा आध्यात्मिकता की यात्रा में अनेक सोपान चढ़े। मेरी यात्रा पर्वत से निकलते झरने की थी। चट्टानों से टकराना उसका मुकद्दर था। टकराहट से उत्पन्न संगीत ही उसे झर-झर बहने की प्रेरणा देता था। झरना बहता रहा। अपनी मंज़िल की ओर बढ़ता रहा। कुछ कर पाने का हर्ष था। अभीष्ट की प्राप्ति में अनेक साहित्यकारों ने संबल दिया, सहयोग दिया, सद्भावना दी। ‘हरियाणा साहित्य अकादमी’ मेरे जीवन का अविच्छिन अंग रहेगी। कामना करती हूँ कि यह उत्तरोत्तर प्रगति के पथ पर अग्रसर हो।
लागी लगन (2018)
‘लागी लगन’ में ‘‘साधना-लीन कुमुद’’ द्वारा रचित 190 हाइकु संगृहीत हैं, जिन्हें कवयित्री ने सात उपशीर्षकों – ‘सागर-प्रेम’ (44), ‘वियोग’ (24), ‘वीचि’ (32), ‘नाविक, नौका’, (24), ‘तट’ (20), ‘जलचर’ (24) और ‘विविध’ (22) – में विभक्त
किया है। प्रकृति और पर्यावरण-संरक्षण, विशेषकर समुद्र, पर केन्द्रित इस काव्य-संग्रह की भूमिका ‘अद्वैत’ में, अपने काव्योद्देश्य को स्पष्ट करते हुए, कुमुद बंसल लिखती हैं –
”प्रकृति सदा ही कुछ कहती है। मुझसे बतियाती है। अनुपम सौन्दर्य से आकर्षित करती है। हवाओं की सरसराहट, फुदकते परिन्दो ं की चहचहाहट, पुष्पों के सिंहासन पर विराजमान तितलियाँ, खेत-खलियानों मे ं लहलहाती फसलें, वृक्षों पर निकली नई कोंपलें, ऋतु की हलचल व नदियों की कलकल मुझे मदहोश करती हैं। हिमाच्छादित पर्वत-श्रृंखलाएँ हों या दूर-दूर तक स्वर्णिम आभा लिए रेगिस्तान, शरद-पूर्णिमा की चाँदनी रात हो या अमावस्या में झिलमिलाते तारों की बरसात,चहुँदिश बिखरा मौन हो या इस मौन को चीरती झींगुरों की सीटियाँ, दहाड़ता सागर हो या बाँहें फैलाता नीलगगन, ये सभी आमंत्रण देते हैं कि आओ, हमसे एक हो जाओ। प्रकृति के आगोश में मेरा अस्तित्व पिघलने लगता है। निजता मिट जाती है। थका-हारा ‘मैं’ अपने अहम्-रथ से उतर जाता है। अतीत को तो मानो भूखी शार्क ने जबड़े में जकड़ लिया हो। इस पिघलने व मिटने में, रथविहीन हो जाने, जकड़ जाने के उपरांत जो शेष है, वो है प्रकृति की अनुपम छटा/अद्वैत। कुछ वर्ष पूर्व 6 सप्ताह के लिए अण्डमान-द्वीप में मेरा प्रवास रहा।
अधिकांश समय हैवलॉक व नील-द्वीप पर गुज़ारा। यहाँ के प्राकृतिक सौन्दर्य को देखकर बारम्बार यही पंक्तियाँ स्मृति-पटल पर उभरने लगती थीं कि ‘छाप-तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाई के’। विचारों का चक्रवात थमने लगा। सूफी विचारधारा में डूबने लगी।
हैवलॉक द्वीप के जिस होटल में मैं ठहरी हुई थी, वहाँ से समुद्र की दूरी मात्र 200 कदम थी। अपने कमरे के बरामदे से भी समुद्र को निहार सकती थी। निस्तब्ध रात्रि में बड़ी लहर का तट से टकराना सुन सकती थी। बस यहीं से लगन लागी।
मैं तट की साफ रेत पर अकेली बैठी सागर की गहराई के लिए शब्द ढूँढ़ती रहती। चट्टानों से टकराकर दूधिया फेन-सी पसरती लहरों का जादू देखते ही बनता। मुझे अकेला पाकर सागर मेरी घेराबन्दी करता। अपनी लहरों पर उठा लेता। मैं भी खुद को उन्हें सौंप देती। लहरों पर बिठा सागर मुझे तट की ओर धकेल देता। मैं दीवानी-सी बन लौटती लहरों का पीछा करती। इस पीछा करने में छोटे-छोटे जलचर मेरा साथ निभाते। समुद्र के संग खेल अच्छा लगता। भीतर डर नहीं था कि समुद्र मुझे डुबा सकता है, पटखनी भी दे सकता है। सम्मोहित-सी मैं सागर-गर्भ से निकलते शीतल सूर्य को देखती, जो दिनभर जलकर, संध्या समय थका-हारा-सा चुपचाप ही सागर में विलीन हो जाता। मैं जब भी सागर के पास होती, विशाल और असीम सागर ही बन जाती।
अंतस् में लहरें उठतीं। बाहर भी लहरें थीं। भीतर प्रेम था। बाहर थीं मछलियाँ, सीपियाँ, मंूगे, शैवाल- जो कभी जलराशि में डूब जाते, तो कभी उभर आते। एक दिन सागर ने अपना रौद्र रूप दिखाया – गरजने लगा आसमान की ओर उछल-उछल कर, तट को निगलने की आक्राँति-चाह में सुनामी-सा बढ़ने लगा। उस समय स्टीमर से मैं एक द्वीप से दूसरे द्वीप जा रही थी। प्रबल लहरों
के कारण स्टीमर बहुत ऊपर उछल जाता। मेरी नसों में बहता खून खदबदाने लगा। क्षण-भर को रक्त में ज्वालामुखी आ गया। मेरा समूचा अस्तित्व धड़कने लगा। मैंने सागर से पूछा कि आखिर उसे मुझसे क्या चाहिए? मैंने उसकी सत्ता या अपराजेयता
को चुनौती नहीं दी!
जब भी लहरों को देखती हूँ, उनका उन्माद मुझे भी उन्मादग्रस्त करता है। छोटी-बड़ी तरंगों का तट की ओर बढ़ना, उनका विलास देखती हूँ। उनका उन्मुक्त हास चहुँ ओर गुंजायमान होता है। जहाँ तक दृष्टि जाये, उमड़ती लहरों का ही राज है। वेगवती, नीली-पीली लहरें तट के पद-प्रक्षालन उपरांत भेंट में बहुत-कुछ दे जाती हैं। मैं भी श्वेत फेनिल लहर बन अपने लक्ष्य को पा अपने मूल में समा जाती, विश्राम पाती। सागर में एकबारगी उतरूँ, तो उबर न पाऊँ। पुनर्जन्म न हो। कभी-कभी यह अहसास भी हुआ कि मैं तट पर तड़पती वो मछली हूँ, जिससे सागर ने किनारा कर लिया है। हर लहर में सागर समाया है, पर लहर सागर नहीं कहलाती। परम का अंश मुझमें है, पर मैं परम नहीं। लहर का मूल सागर है – वहीं से आना, वहीं समाना। मैंने सागर से कहा कि मुझे अपने में समा लो। उसने कहा कि मैं सागर हो जाऊँ। मैं पिघलती गई, पानी बन गई, पर सागर न बन पाई। मैं लौटना नहीं चाहती थी। अपने स्थायी निवास पर तो लौटना ही था। लौट आई। अकेली नहीं आई थी- सागर, तट, उर्मियाँ, जलचर इत्यादि सबके-सब बिना पदचाप पीछे-पीछे आ गये। जब भी खामोश होती हूँ, सागर-नाद सुनाई देता है। मूदे नयन सागर की झलक पाते हैं। लहरों की खुशबू से रोम-रोम महक उठता है। मेरी मृत-सी काया जी उठती है। उछाल लेती लहरें प्राणो ं में भी उछाल देती हैं।
सागर के सामीप्य में सब-कुछ सुखद भी नहीं था। मानव द्वारा फैलाए प्रदूषण के कारण सागर की श्वासों को घुटते देखा है। लहरों में सीपियों, शंखों संग प्लास्टिक की बोतलों को तैरते देखा है। स्टीमर की डैक पर खड़े लोगों को चिप्स के खाली पैकेट समुद्र में फेंकते देखा है। ऐसे लोगों से अक्सर टकराव भी होता था। नदियाँ बीच रास्ते में ही सूख रही हैं। जलधि तक मीठा जल न पहुँचने के कारण पयोधि का खारापन बढ़ गया है। हल्का नीला और हरा समुद्र काला पड़ता जा रहा
है। इसके क्रोध से जलस्तर बढ़ रहा है। धरती से तीन गुणा जलराशि क्या तीन गुणा सजा पा रही है, पर धरा ही कहाँ सुखी है। कभी मानव व प्रकृति में साहचर्य हुआ करता था। अब मानव प्रकृति को दासी बनाने चला है। दासत्व के बोध से त्रस्त
प्रकृति अपना बदला ले रही है। समुद्र में सुनामी आ रही है। भू-भाग भूचाल से पीड़ित है। प्रदूषण-जनित बीमारियाँ मानव को अकाल-मृत्यु की ओर धकेल रही हैं। अब प्रकृति में चन्दन-सी खुशबू नहीं। नदियों पर बाँध बना डाले। उन्मुक्त धाराओं को गन्दे नालों में बदल दिया गया।हमें प्रकृति की ओर लौटना होगा। प्रकृति के हर्ष में ही हमारा उत्कर्ष है।
हमें प्रकृति से अद्वैत साधना होगा।रुमानियत के पथ पर चलते-चलते संवेदनशील कवयित्री का मन सागर के प्रति मानव-जनित विभीषिका से आहत होता है। ‘लागी लगन’ में सूफीवाद की स्पष्ट झलक है।
लो मैं आ गई सीपी में बंद
सुनने तेरी बात बातें तेरी पढ़ती
मन-सौगात अर्थ गढ़ती
पृष्ठ सं 15 पृष्ठ सं 20
सिन्धु की बातें द्वीप-सा मन
बाँध लाई गठरी अश्रुधार में डूबा
कटती रातें झेलता द्वन्द्व
पृष्ठ सं 42 पृष्ठ सं 48
तेरी यादों की नैनों में छाए
ज़रा-ज़रा छुअन सिन्धु-स्मृति बदरा
रचे फागुन बहा कजरा
पृष्ठ सं 49 पृष्ठ सं 50
सिन्धु मायावी कर्मो की डोंगी
मोहक जल-जाल अध्यात्म पतवार
नौका का काल मल्लाह पार
पृष्ठ सं 74 पृष्ठ सं 80
देख मानव प्यारे शैवाल
है कुछ डरी-डरी हरे-भूरे व लाल
जल की परी हैं बेमिसाल
पृष्ठ सं 99 पृष्ठ सं 105
खारा-सा पानी ले अँगड़ाई
जल पले जीवों की सागर है विभोर
है ज़िन्दगानी आई है भोर
पृष्ठ सं 108 पृष्ठ सं 114
मन बंजारा (2019)
‘मन बंजारा’ में चार-चार, दोहात्मक-सी, पंक्तियों पर आधारित 9 छोटी-छोटी कविताएँ संगृहीत हैं। चिन्तन और सृजन के धरातलों पर प्रौढ़ता की द्योतक इन रचनाओं में बंजारन (कवयित्री) का बंजारा ”मन कभी सातवें आसमान पर विचरता है, तो अगले ही पल रेगिस्तान में गरम रेत पर तपता है। मन की कूक में दर्द, पीड़ा, निराशा, वेदना, जोश, उत्सव, नृत्य, गीत, सबमें बंजारापन है।“ यहीं यह उल्लेख करना भी अनिवार्य है कि प्रस्तुत काव्य-संग्रह में, आध्यात्मिक चेतना की अपेक्षा, रचयित्री का सर्वाधिक बल मानवीय रिश्तों-सम्बन्धों और कथनी-करनी की वास्तविकता पर रहा है – हरियाणा साहित्य अकादमी के तीन वर्षों (फरवरी, 2016-फरवरी, 2019) तक निदेशक-कार्यकाल की खट्टी-मीठी स्मृतियाँ और अनुभूतियाँ तो यहाँ स्पष्टतः परिलक्षित हो ही रही हैं। बकौल कवयित्री –
“मन बंजारा, नहीं किसी से हारा, न घर न कोई ठिकाना। आज यहाँ तम्बू, जाने कल किधर है जाना।
मन कभी सातवें आसमान पर विचरता है, तो अगले ही पल रेगिस्तान में गरम रेत तपता है। जब-जब मन बंजारा गाने लगता है, तो इसकी साँसें ही ढोलक बजाती हैं।
मन की अँखियाँ झुकी-झुकी। रफ्तार कुछ रुकी-रुकी। मन की कूक में दर्द, पीड़ा, निराशा-वेदना, जोश, उत्सव, नृत्य, गीत सबमें
बंजारापन है।
बेपरवाह बंजारा निकल पड़ता है। मन की रफ्तार से, मन की ही धार से। नहीं घर पर है जिगर। शेर की दहाड़ है। ठान ले तो पहाड़ है। बरसात में मस्ती है। धूप की चुभन की भी हस्ती है।
बंजारा-मन कब जंजीरों में बंध पाया! निकल पड़ता है दूर तक जाती डगर पर, अनंत यात्री की मानिंद। धरा के छोर से छोर तक। राह में मिलते हैं प्रचण्ड लहरों वाले सागर, अंतहीन मरुस्थल, पूर्णिमा काली अँधेरी रात। पर्वतों से निकलते चट्टानों से टकराते झरने, कृषि-देह-से सधे वृक्ष, तो कभी घुमावदार पगडंडियाँ। बंजारा-मिजाज़ी का अपना सलीका है, आवारगी है और तहज़ीब भी है।“ इसी बंजारापन की अभिव्यक्तियाँ –
थी उसकी रग-रग में हिमखंड देखे पिघलते हुए
धूर्त्तता, धोखा, मक्कारी देखे पत्ते गिरते हुए
मिलते ही हल्दी-गाँठ वक़्त की तपिश में देखे
बंदर बना पंसारी। अपने ही बदलते हुए
पृष्ठ सं 14 पृष्ठ सं 28
कच्चा था घर का आँगन सूने कुएँ-से हो गए रिश्ते
प्रेम भरे थे सम्बन्ध पहचान भी खोई
आँगन-मन हुए संगमरमरी लाख पुकारा इधर से
अब आती नहीं सोंधी-सी गंध गूँज भी उधर न हुई
पृष्ठ सं 32 पृष्ठ सं 48
ऐसे आते उनके खयाल आँधी, अंधड़, तूफ़ान
जैसे आते परिन्दे आँगन गड़गड़ाएँ चाहे बादल
सुनाकर चहचहाट गीत मन-बंजारा घूमता रहे
फिर उड़ जाते गगन बाँध पग में पायल
पृष्ठ सं 82 पृष्ठ सं 96
मन जाेि गया (2019)
‘मन जोगिया’ में, ठीक ‘मन बंजारा’ की ही शैली में, 93 कविताएँ संगृहीत हैं। कमाल है कवयित्री के अनुभव-संसार का! ‘मन बंजारा’ में जो मन विशुद्ध भौतिक संसार में विचरण कर रहा था, पलक झपकते ही, ‘मन जोगिया’ में आकर वही मन विशुद्ध आध्यात्मिक लोक की सैर करने-कराने में जुट गया। बकौल बंजारन (कवयित्री) –
”जब सब ढह चुका होता है पिघल चुका होता है ध्वस्त हो चुका होता है जब मैं में ‘मैं’ भी विलीन हो चुका होता है तब कहीं कुछ पलों का जागरण होता है ‘उसके’ झीने से उजास की सुवास होती है सुवास का अहसास भी नहीं होता अहसास के लिए भी कोई इन्द्री चाहिए कभी झीना उजास, कभी सुवास तो कभी ‘उसकी’ तड़प। इसी तड़प में या जागृत अवस्था से लौटने पर जो शेष था वही है ‘मन-जोगिया’। गुड़ की मिठास शब्दातीत है। जिसमें सब-कुछ मिटाने का साहस हो, वही जागृत हो पाता है। इन जागृत पलों का साक्षी ‘मैं’ भी नहीं होता। अनुभव की आस के व अनुभव के पल उत्सव के पल थे। इस उत्सव में कभी खुद से ही लयबद्ध नृत्य था, तो कभी ‘वो’ ऐसे घेरता था कि ‘खुद’ का पता खुद को नहीं।
पुरातन कालातीत, अनंत के उत्सव में प्रवेश समयातीत था। रोआँ-रोआँ आनन्द की पुलक से भर जाता। मौन-संवाद/लयबद्धता/निराकार उपस्थिति का आनन्द/हज़ारों कोंपलों का सुवासित खिलना/परम दिव्य पूर्णेन्दु की शीतलता
गहरी बेहोशी की मृत्यु। बंजारे-मन की हज़ारों मीलों की यात्रा का अंतिम पड़ाव उसी की देहरी
है। जिस मन ने खुद को बिसरा जो यात्रा आरम्भ की थी, वही मन अब ठहरने लगा है। बंजारापन जोगियापन में ढलने लगा है।“
बंजारापन किसी वनगमन से कम नहीं था। बंजारापन, खानाबदौशी का अवसान मन के जोगियापन में हुआ। बंजारन बन गई स्वदर्शी, आत्मरत। स्थिरचित- वेधा-मन की अभिव्यक्ति पाठक के मन को छू लेती है –
यहीं कहीं आस-पास हो नयन खोलूँ या करूँ बन्द
बस उघाड़ना है ज़रा इन्हीं में बसता ‘उसका’ जमाल
गीत बन उतर गए हो पिण्ड में ब्रह्माण्ड समाया
बस गुनगुनाना है ज़रा अजब है ‘उसका’ कमाल
पृष्ठ सं 15 पृष्ठ सं 17
सरसराहट-सी हुई मुझसे ‘मेरा’ किया अगवा
खोल दिए वातायन रपट लिखाऊँ किस थाने में
जागकर सिहर उठी मेरा वकील भी ‘वही’
सुना अलौकिक गायन ‘उसी’ की अदालत ज़माने में
पृष्ठ सं 41 पृष्ठ सं 63
अब ना होगी ‘उससे’ जुदाई नूर उतरा रूह में
‘उसने’ ही घूँघट उठाया है गवाही न दे पाई ज़बान
मिट गई देह की दूरी हम हम ही न रहे
ऐसा नाच नचाया है जब से ‘वो’ हुए मेहमान
पृष्ठ सं 68 पृष्ठ सं 86