आध्यात्मिक चेतना

‘अध्यात्म’ एक बहु-प्रचारित एवं बहुचर्चित विषय है। प्रातः-जागरण से लेकर रात्रि-विश्राम तक, किसी-न-किसी रूप में, इससे हमारा सामना हो ही जाता है। इस दृष्टि से डॉ॰ कुमुद रामानंद बंसल द्वारा प्रणीत, अध्यात्म से पूर्णतया सुवासित, ये पाँच पुस्तकें सर्वाधिक उल्लेखनीय हैं – रे मन! (2011), झीना उजास (2012), हे विहंगिनी! (2015), झाँका भीतर (2015), मन जोगिया (2019)। आइये, कृतियों की राह से गुज़रते हुए, कुमुद बंसल के अध्यात्म-दर्शन की पहचान और परख करने का प्रयास करें –
डॉ॰ कुमुद बंसल को युवावस्था में ही ”कुछ-कुछ समझ में आने लगा था कि “जब तुच्छ अहम पिघल जाता है, विलीन हो जाता है, मिट जाता है, बालू की भीति की भाँति भुरभुराकर गिर पड़ता है, तब वह घटता है, जो मीरा और चाणक्य के साथ घटा। संकीर्ण दायरों में परम-आभा नहीं समाती। मन के हवनकुंड में, इच्छाओं की अग्नि के प्रकाश में, कृष्ण का विराट रूप नहीं दिखता। युद्धक्षेत्र में कृष्ण के परम-सखा अर्जुन का मन भी जब तक मोहग्रस्त था, जब तक उसमें सहज समर्पण-भाव नहीं था; तब तक कृष्ण का दिव्य रूप उसे नहीं दिखा। मोह हटा, तो वह घटा।“ (झीना उजास, पृ॰ 9)
‘झीना उजास’ की भूमिका में लेखिका द्वारा व्यक्त भावबोध, 2012 तक की उनकी आध्यात्मिक यात्रा का, एक संवेदनशील वृत्तान्त है, जिसमें सगुण-कृष्ण निराकार हो जाते हैं और निराकार-कृष्ण सम्मोहक-कृष्ण में परिवर्तित हो जाते हैं।
इसी सगुण-रूप से हुआ उनका वार्त्ता-वृत्तान्त निम्नवत् है – ”कई बार ऐसा हुआ है कि स्वयं को सात कोठड़ियों के भीतर बंद पाया। देह तन्दूर की मानिंद जल रही थी। हड्डियों का बालन था और क्रोध अगन में घी का काम कर रहा था। हृदय ने चीखकर उनसे कहा, ”प्रपंच किए मैंने, जो आपने थे करवाए। गीत मैंने थे गाये, जो आपने थे गवाये। जो आपने रचा,

वही था हृदय बसा। चौरासी लाख नाटक खेले। पटकथा आपकी थी। कहानी आपकी थी। लेखन आपका था। निर्देशन आपका था। मैंने वही अभिनय किया, जो आपने करवाया।“ क्रोध हताशा में परिवर्तित होने लगा। देह ठंडी पड़ने लगी। दोनों भुजाएँ, जो क्रोध में ऊपर तन गई थीं, निराशा का भाव लिए नीचे लटक र्गइं। उनके अंगवस्त्र का कोना पकड़ हौले से पूछा, ”क्या आपको मेरा कोई भी नाटक अच्छा
लगा?“ स्मित हास्य से उनकी दंत-पंक्तियाँ दिखने लगीं। हृदय में थोड़ी आस का वास हुआ। उनके अंगवस्त्र का कुछ-और हिस्सा पकड़ लिया। स्वर में विश्वास की झलक थी, आँखों में उम्मीद की चमक थी, शिराओं में आश्वस्त कम्पन था। उनसे कहा, ”अगर आपको कोई भी नाटक अच्छा लगा हो, कोई भी अभिनय पसंद आया हो, तो हे प्रिय! पारितोषिक-स्वरूप अपने-आपको मुझे दे दीजिए। अगर मुझे भूमिकाएँ निभानी ही नहीं आईं, तो इन चौरासी-लाख नाटकों के मंचन से अलग कर दीजिए।
सात कोठड़ियों के द्वार खुले। चिराग जला, हो सजग उन्हें देखा। वह पास नहीं आते, हल्ला मचवाते, पुकार लगवाते, बदन उमेठे हैं। जिनके नाम का ही ताना-बाना, पल-पल जिनकी शरण विलोकूं, वह देव ऐंठे हैं। नाटकों में घूमती रही, सींखचों से तकती रही, सोचती रही कि मेरे इष्ट मेरे पास बैठे हैं।“
डॉ. कुमुद बंसल का मानना है कि ”परमात्मा और देह के बीच प्रकृति एकसेतु है। लौकिक को अलौकिक से जोड़ने की कला मात्र-प्रकृति के पास है। पूर्णेन्दु की रात थी। एक पनिहारी कुएँ से घड़े में पानी भरकर लौट रही थी। अचानक कांवर टूट गई। घड़ा फूटा। जल बिखरा। बिखरे जल में सैकड़ों चाँद झिलमिलाने
लगे। पनिहारी के अन्दर का नृत्य फूट पड़ा। बिखरे जल ने उसको भीतर समेट दिया। सिमटे भीतर से वह एकाकार हुई।“ (हे विंहगिनी!, पृ. 11)
‘हे विहंगिनी!’ में ही इस उपलब्धता के बाद की स्थिति का वर्णन कवयित्री इन शब्दों में करती हैं – ”मेरी स्थिति उस गजराज जैसी है, जिसने सल्लकी के मीठे पत्तों को चबा लिया हो और अब लाख उपाय करने पर भी कड़वे पत्ते चबाने को राज़ी नहीं होता। जिसने प्रकृति की गोद की शान्ति चखी हो, वह सुरभित वसन्त
को छोड,़ सीमेन्ट के जंगल में नहीं रह सकता।“ (पृ.12)”आध्यात्मिकता को परिभाषित नहीं किया जा सकता। जैसे ही इसे परिभाषित करने या इसका शब्दों में वर्णन करने का प्रयास किया जायेगा, वैसे ही
इसका तत्त्व विलुप्त हो जायेगा और जो शेष बचेगा, वह मृत्यूपरान्त शव की मानिंद होगा। असीम का सीमन नहीं हो सकता। आध्यात्मिकता परिभाष्य नहीं है, क्योंकि इसके प्रति जिज्ञासा अक्सर उस राह-चलते बच्चे जैसी होती है, जो पूछता है कि इस वृक्ष का नाम क्या है? अगर पिता ने उत्तर नहीं दिया, तो वह भूल जाएगा कि उसने वृक्ष का नाम पूछा था। और अगर पिता ने बता दिया, तो उसके मस्तिष्क के सूचना-तन्त्र में कुछ जुड़ जायेगा। बच्चे का कुतूहल है- नाम जानना। जिज्ञासा होगी, तो वह थोड़ा वृक्ष की गहराई में उतरेगा- बस थोड़ा-ही। कुतूहल, जिज्ञासाएँ मात्र-बौद्धिक भूख हैं। आध्यात्मिकता के बारे में जानना, बोलना और सोचना एक उपाय-मात्र है।“
‘आध्यात्मिकता क्या है? से ही जुड़ा हुआ एक प्रश्न यह भी है कि क्या किसी को आध्यात्मिक बनाया जा सकता है? उत्तर है – नहीं। आध्यात्मिकता किसी को पहनाई या ओढ़ाई नहीं जा सकती। महात्मा बुद्ध के अन्तिम क्षणों में उनका शिष्य ‘आनन्द’ रो रहा था; अपनी छाती पीट रहा था। बुद्ध द्वारा कारण पूछने
पर उसने बताया कि 40 वर्षों से सत्य का आध्यात्मिक दरिया उसके पास बह रहा था और वह प्यासा ही रह गया।
अगर कोई आध्यात्मिकता देना भी चाहे, तो पात्र का राज़ी होना आवश्यक है। पात्र में ग्राहकता, खुलापन होना चाहिए। अहोभाव-भरे हृदय में आमंत्रण-भरी प्यास की दरकार है। वर्षा के लिए पृथ्वी के सूखे हृदय में दरारें पड़ जाती हैं- वह दरक जाती है। जब पात्र की ऐसी अवस्था होती है, तब आध्यात्मिकता दरवाज़ा
खटखटाती है। ‘झाँका भीतर’ पुस्तक में कवयित्री ने लिखा भी है कि –

लबास सिये तेरे लिए
पहने तेरे लिए
डोलती फिरूँ
बेपरदा हुई हूँ
वह भी तेरे लिए…
पृष्ठ सं 123

यह ‘ताँका’ देखने में जितना सहज लगता है, उतने ही अधिक इसकेआयाम हैं। यहाँ ‘लिबास’ से आशय व्यक्ति की पहचान से है। व्यक्ति अपनी पहचान से ही खुद का तादात्म्य कर लेता है। वह स्वयं को रंग, रूप, शैक्षणिक योग्यता इत्यादि से जोड़ लेता है। यह कुछ वैसा ही है, जैसे हम किसी विशेष-वृक्ष को नीम के वृक्ष का नाम दे देते हैं। ‘लिबास-सिये’ का अर्थ यह है कि व्यक्ति भिन्न-भिन्न आईडेंटिटीज़ के लिबास पहन लेता है, ओढ़ लेता है, उन्हीं में रचा-बसा रहता है। ‘पहने तेरे लिए’ का अर्थ भौतिक जगत् से भी है और आध्यात्मिक जगत् से भी।
भौतिक जगत् में हम अपनी आईडेंटिटीज़ के द्वारा किसी अन्य को प्रभावित करना चाहते हैं। आध्यात्मिक जगत् में व्यक्ति यह सोच लेता है कि उसके द्वारा पहने गए लिबास, अर्थात् उसके द्वारा किसी विशेष ढंग से की गई पूजा, अर्चना, साधना-पद्धतियाँ आदि अपने इष्ट को रिझाने के लिए या इष्ट/सत्य तक पहुँचने के लिए धारण किए लिबास हैं। ‘डोलती फिरूं’ से आशय है कि भौतिक व आध्यात्मिक जगत् में व्यक्ति भटकता रहता है- अपने द्वारा सोची गई उपलब्धि को प्राप्त करने की चाह में। ‘बेपर्दा हुई हूँ’ का अर्थ है कि जब व्यक्ति बिना-किसी
नाम-रूप, बिना-किसी विशेषण के हो जाता है, तब उसे बेपर्दा होना कहते हैं। इसी बेपर्दा होने को डॉ. कुमुद के साहित्य में, भिन्न-भिन्न रूपों में, देखा जा सकता है-

इस देह-तकली पर,
कातूँ रूह-कपास।
छिन्न-भिन्न हुआ सब,
शेष न कोई आस।।
मन जोगिया, पृ.102
 ‘उसके’ इश्क में होश गँवाया,
‘वो’ है बड़ा कसाई।
मन की परत-परत काटी,
तब कहीं झलक दिखाई।
मन जोगिया, पृ. 61
 मुझसे ‘मेरा’ सब छीन लिया,
मृत्यु से पहले मृत्यु पाई।
दस दरवाजे़ भस्म हुए,
कण-कण में महके सांई।।
मन जोगिया, पृ. 89
व्यक्ति द्वारा धारण किए हुए या ओढ़े हुए वस्त्र जब छिन्न-भिन्न हो जाते हैं, तब स्थिति ऐसी होती है –
 मुझसे ‘मेरा’ किया अगवा,
रपट लिखाऊँ किस थाने में।
मेरा वकील भी ‘वही’,
‘उसी की’ अदालत ज़माने में।।
मन जोगिया, पृ. 63
लिबास-हीन व्यक्ति की मनोदशा ऐसी होती है कि –
 बरसो तुम अमृत-घन
वृक्ष, लघु-तृण, तरु पर
27
बरसो तुम नव-नूतन
प्राणों को अमर मधु दो
हे प्राणों के मधुसूदन !
रे मन !, पृ. 32
 मैं ही बीज हूँ,
मैं ही खेत, किसान,
दो नहीं बचे,
सिद्धि की यही दशा,
‘उसका’ है निशान…
झाँका भीतर, पृ. 78
यदा-कदा ऐसा भी होता है कि किसी पूर्व-जन्म में किये गये आध्यात्मिकचेतना के प्रयास, अनायास ही, हमें विदेह की अवस्था में पहुँचा देते हैं। इसकी अभिव्यक्ति ‘झीना उजास’ तथा ‘रे मन!’ ग्रन्थों में मिलती है –
 आज कश्ती ने तोड़ दिये किनारे
बढ़ी आगे वो भँवर के सहारे
कुछ तो है घटा ज़रूर ।
साये थे जिन दरो-दीवार के
झटके से ढह गयीं वो दीवारें
जर्जर साज से निकलीं झनकारें
कुछ तो है घटा ज़रूर ।
निरुत्तर, निःशब्द हो गयी मैं
प्रश्नों की म्यान के भीतर तलवारें
कश्ती ने बदले आयाम
आँधियों को बनाया पतवारें
झीना उजास, पृ. 78
 छपछपाना पानी का पानी पर,
पानी में पानी।
आकाश हुआ लुप्त
प्रकट हुआ गुप्त…
झाँका भीतर, पृ. 62
 तजे पल्लव
नव पल्लव हेतु,
बीज से फल
मिटा है लघु पल
युग बनने हेतु…
झाँका भीतर, पृ. 69

डॉ. कुमुद बंसल के साहित्य में गुरु के महत्त्व पर कहीं-कुछ पढ़ने-देखने को नहीं मिलता। एतद्विषयक उनका प्रति-प्रश्न है कि क्या भगवान बुद्ध, भगवान महावीर या अन्य अनेक गुरु किसी को अपने-जैसा बना सके? इसका सीधा अर्थ एक ही है कि जब तक व्यक्ति स्वयं कुछ नहीं करता, तब तक गुरु भी उसे घुट्टी-रूप में अध्यात्म नहीं पिला सकता। इसका अर्थ यह भी नहीं है कि गुरु का कोई महत्त्व ही नहीं है। हमें किसी अनजान देश में जाना हो और अगर सही मार्गदर्शक मिल जाए, तो जाने में सुगमता हो जाती है। यहाँ एक प्रश्न यह भी रहता है कि जो मार्गदर्शन गुरु दे रहे हैं, उसको ग्रहण कैसे किया जा रहा है? अगर मार्गदर्शन को सही ढंग से ग्रहण नहीं किया गया, तो विकृतियों की संभावनाएँ ज्यादा रहती हैं।
कुमुद का मानना है कि आध्यात्मिकता के क्षेत्र में प्रवेश के लिए कोई नुस्खा या निर्धारित औषधि नहीं है, कोई पथ नहीं है। इसके लिए कोई राजमार्ग, कोई पगडंडी, कोई जलमार्ग और कोई वायुमार्ग नहीं है। आध्यात्मिक अवस्था एक घटना है, जो व्यक्ति के जीवन में कब होगी, कैसे होगी, क्यों होगी, कितनी देर के लिए होगी? आदि प्रश्नों का कोई स्पष्ट उत्तर नहीं है, शायद कोई उत्तर है भी नहीं। ऐसे ही भाव ‘मन जोगिया’ में अनेक पृष्ठों में मिलते हैं –

सुकून न बिकता किसी हाट,
न बिकता किसी दुकान।
छिपा बैठा गहरे मन,
वही इसकी धरा और आसमान।
पृष्ठ सं 11
 उठी, जगी, थोड़ा सधी,
छूटा ये हिसाब-किताब।
घटने लगी है क्रान्ति,
फैल रही ‘उसकी’ सुवास।।
पृष्ठ सं 42
 एक अनंत सन्नाटा है,
देह की दीवार दरकी।
सनसना गया स्वर अनजाना,
जब ओस पत्ते से ढरकी।।
पृष्ठ सं 54

कभी-कभी लगता है कि डॉ. कुमुद बंसल यह निश्चय नहीं कर पातीं कि उनकी आस्था सगुण में है या निर्गुण में! इस सम्बन्ध में उनकी स्पष्ट मान्यता है कि सगुण-निर्गुण रूप में निर्णय लेने जैसा कुछ नहीं है। जब किसी व्यक्ति को अपने रुधिर का परीक्षण करवाना होता है, तो अँगुली से निकला हुआ रुधिर सगुण-रूप है और वही रुधिर जब हमारे शरीर में संचरण कर रहा होता है, तो हमारे लिए निर्गुण समान है। आध्यात्मिक अवस्था में भी ऐसा-कुछ होता है। वार्तालाप के दौरान कुमुद कहती हैं कि जिस परम चैतन्य/सत्य, परमात्मा की हम खोज कर रहे होते हैं, आध्यात्मिक अवस्था में वह कभी पशु-पक्षियों का रूप ले लेता है, तो कभी कीट-पतंगा बन जाता है; कभी अमावस्या-रात्रि में तारों-सा चमकता है, तो कभी शरद-पूर्णिमा में शीतल चाँदनी बरसाता है“-

बरसो तुम अमृत-घन
वृक्ष, लघु-तृण, तरु पर
बरसो तुम नव-नूतन
प्राणों को अमर मधु दो
हे प्राणों के मधुसूदन !
रे मन !, पृ. 32
 मैं एक बूँद-भर थी,
‘उसकी’ एक किरण मिली।
निर्जीव, बेरंग-सी थी,
इन्द्रधनुष-सी खिली।।
मन जोगिया, पृ. 96
 तुम जो मिले,
जन्म-जन्म के पले
प्रारब्ध जले।
शतदल-कमल
हँस-हँस हैं खिले…
झाँका भीतर, पृ. 44
 जब से प्रभु भए पावना
छूट गईं सब बाधाएँ
टूट गईं सब सीमाएँ
खो दिया नियंत्रण
जब मिला आमंत्रण
गगन में गीत गावना
जब से प्रभु भए पावना।
झीना उजास, पृ. 98
30
 है जो भीतर,
वही तो बाहर है
है अविभाज्य।
जग बसे मुझमें
मेरा ही है राज्य।
झाँका भीतर, पृ. 77
 मैं रही नहीं
वो जुदा ही कब था,
यह सिलसिला है
बरसों से चलता
आँख-मिचौली खेल।
झाँका भीतर, पृ. 98
 नखरेबाज़!
कहाँ कभी आते हैं
बिना रिझाये।
एक बार जो आये
हरी-भरी हुई मैं।…
माँगो स्वप्न
दे दँू निज नयन
सम्पूर्ण तन।
पल माँगो, युग दूँ
हर निज सुख दूँ।।
झाँका भीतर, पृ. 33

आध्यात्मिक चेतना का जागरण कब और कैसे होता है? इस विषय में डॉ. कुमुद बंसल का कहना है कि किसान उर्वरा-भूमि को तैयार कर उसमें बीज बोता है। अनेक बीजों के प्रस्फुटित न होने की प्रबल सम्भावना रहती है।
आध्यात्मिक प्रस्फुटन या तो शबरी के अनेक वर्षों की इंतज़ार के फलस्वरूप होता है या, अष्टावक्र से रहस्य सुनने पर, जैसे जनक को हुआ था, वैसे होता है। उस उपलब्ध क्षण के लिए व्यक्ति जल-बिन मछली-सी तड़पन महसूस करता है –

टीस, कसक, छटपटाहट,
बने सम्मोहनकारी हाला।
बिन आहुति के ही भड़की,
विरह, वेदना-ज्वाला।।
मन जोगिया, पृ. 79
31
 देह-चक्की में मन पीसा,
न मिली राधा न कोई रहिमन।
पीसती-पीसती हँस पड़ी,
जो तू है वही हूँ मैं यकीनन।।
मन जोगिया, पृ. 34
 कहाँ रख पाई हिसाब,
क्या मिला या गिराया।
आत्म-ज्वाला में सब भस्म,
जो था छाना या छलकाया।।
मन जोगिया, पृ. 48

भौतिकी और अध्यात्म के आपसी संबंध के विषय में डॉ. कुमुद बंसल का मानना है कि इन दोनों में गहरा संबंध है; किन्तु वह संबंध, प्रायः, किसी को समझ नहीं आता। संसार के टॉपमोस्ट भौतिकशास्त्री भी यह मानने लगे हैं कि अध्यात्म-क्षेत्र व भौतिक-क्षेत्र प्रातःकालीन वेला की तरह हैं। जहाँ भौतिकशास्त्र की सीमाएँ
समाप्त होने लगती हैं, वहाँ अध्यात्म-चेतना जागृत होने लगती हैं। आध्यात्मिक चेतना का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति अपने लिए कुछ विशेषताएँ चुन सकता है।
अपनी अध्यात्म-चर्चा का अंत डॉ. कुमुद बंसल, प्रायः, इस एक छोटी-सी सत्य कहानी से किया करती हैं, जो यह दर्शाती है कि जिस व्यक्ति में आध्यात्मिक चेतना जागृत हो जाती है, वह अपने छोटे-से-छोटे कार्य को भी समाधिस्थ अवस्था में करता है –
”यूनान देश के एक गाँव का लड़का जंगल से लकड़ियाँ काटकर, संध्या को उन्हें शहर में बेचकर, अपना जीवन-यापन करता था। एक दिन एक विद्वान्व्य क्ति ने लकड़ियाँ खरीदने के लिए उस लड़के से वार्त्तालाप शुरु किया, क्योंकि उसने देखा कि इस लड़के का गट्ठर बहुत-ही कलात्मक ढंग से बंँधा हुआ था। विद्वान् व्यक्ति ने लड़के से पूछा, ”क्या यह गट्ठर तुमने स्वयं बाँधा है?“ लड़के ने जवाब दिया, ”हाँ! मैंने ही बाँधा है।“ विद्वान् व्यक्ति ने पुनः पूछा, ”क्या तुम इसे खोलकर दोबारा इसी प्रकार बाँध सकते हो?“ लड़के ने उत्तर दिया, ”जी हाँ!“ इतना कहते ही उसने गट्ठर खोला और बड़े ध्यान, लग्न तथा फुर्ती के साथ, उसी कलात्मक ढंग से, गट्ठर को दोबारा बाँध दिया। लड़के की एकाग्रता, लग्न और कलात्मक पद्धति से काम करने का तरीका देख उस व्यक्ति ने कहा, ”क्या तुम मेरे साथ चलोगे? मैं तुम्हें अच्छी शिक्षा दिलाऊँगा और तुम्हारा सारा व्यय वहन करूँगा।“
कुछ सोच-विचार करने के उपरांत वह लड़का उस विद्वान् व्यक्ति के साथ चलने को तैयार हो गया। यही बालक कालांतर में महान् दार्शनिक पाईथागोरस के नाम से प्रसिद्ध हुआ।“
निस्संदेह, जो व्यक्ति सत्य को पाने के लिए अध्यात्म-चेतना में लीन रहते हैं, उन्हें सत्य मिल ही जाता है –

मृग-शावक से अब तक पड़े थे
इस संसार-अरण्य में प्राण
बिन पदचाप अतिथि बन आए
देने को रसमय मधुर गान
ज्ञात से मुक्ति के क्षणों में
बन जाते अपरिचित विहान
रोम-रोम गुदगुदा देते
मैं पा जाती हँसने का ज्ञान
अनछुई किरणों की पाकर छाँह
पत्ते पा जाते अज्ञात मुस्कान
स्वप्न नहीं था, भ्रम नहीं था
था आनन्द, आह्लाद अनजान
मृग से उछल पड़े
मृग-शावक से
अब तक जो पड़े थे प्राण।
झीना उजास, पृ. 90

स्पष्ट है कि जीवन की साधक और कर्म की आराधक डॉ. कुमुद रामानंद बंसल कारयित्री एवं भावयित्री प्रतिभा
की धनी हैं। ”तमसो मा ज्योतिर्गमय“ आपके काव्याभियान का पथ-प्रदर्शक है। ज्ञान-ज्योति से प्रदीप्त आपके व्यक्तित्व और दूध से धुले आपके अन्तःकरण से निर्गत यह अनहदनादी अध्यात्म-संगीत, भौतिकता से पराभूत जन-मन को, रससिक्त करने में सर्वसमर्थ है। निस्संदेह, आज कुमुद रामानंद बंसल की काव्य-यात्रा, भौतिकता से आध्यात्मिकता की ओर प्रयाण करते हुए, अपने ईश के प्रति अनन्य-समर्पण की पराकाष्ठा को प्राप्त कर चुकी है और ”त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्प्यते“ का आलोक बनकर जगमगा रही है तथा भविष्य में भी जगमगाती रहेगी।

Posted in Kumud ki kalam.

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