सवंदेना की लहर

कविता के माध्यम से छोटे-छोटे लम्हों की तितलियाँ पकड़ने का प्रयास भी अनूठा होता है। प्रस्तुत काव्य संकलन ‘मन बंजारा’ ऐसा ही सफल प्रयास है। एक संवेदनशील कवयित्री के रूप में कुमुद बंसल ने अपनी विशिष्ट पहचान स्थापित कर ली है। अपने उद्घोषित संकलपों के प्रति समर्पित कुमुद की छोटी-छोटी कविताएँ, जहाँ एक ओर चिन्तन के धरातल पर प्रौढ़ता का आभास देती हैं वहीं उनका संवेदनशील मन अनायास ही अपने मानव-सुलभ एहसासों में डूबने लगता है।
इस संकलन की हर कविता, अपने आप में एक पूरा बयान है –
 जो बादल से बरस गए, वे बन गए समन्दर।
छिपे रहे जो मेरे नैनन, मैं डूबी उनके अन्दर।।
 सूने कुएँ-से हो गए रिश्ते, पहचान भी खोई।
लाख पुकारा इधर से, गूँज भी उधर न हुई।।
संकलन की कुछेक नन्हीं कविताएँ अनूठी प्रयोग-धर्मिता की गवाही देती हैं। ”संबंधों में तो न था, कोई धागा। फिर भी गांठों में, उलझा अभागा।।“ कुछ-कुछ ऐसी ही संवेदनशीलता से भीगी है यह कविता –
 वक्त नहीं है कोई धागा,
ज़ख्म सीने का।
बस, हुनर आ जाता है,
दर्द के साथ जीने का।।
इन कविताओं में कहीं मोहभंग, वितृष्णा व अंतर्विरोधों से डंकित लम्हों के बयान दर्ज हैं तो कहीं-कहीं निश्छल संवेदनाओं के लोबान की खुशबू भी मौजूद है। ‘मन बंजारा’ बंजारेपन का बोलता, एहसास कराता दस्तावेज है।

डॉ. चन्द्र त्रिखा

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Posted in Kumud ki kalam.

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